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__ (पं०-) तद्' इत्यादि, - यत इन्द्रियत्वेन सामान्यत इत्थं चक्षुः, 'तत्' = तस्माद् 'अत्र' = सूत्रे, 'चक्षुर्विशिष्टमेव' न सामान्यम्, 'आत्मधर्मरूपम्' = उपयोगविशेषतया जीवस्वभावभूतं, विशेष्यमेवाह 'तत्त्वाववोधनिबन्धनं' = जीवादिपदार्थप्रतीतिकारणं, या 'श्रद्धा' = रुचिः धर्मप्रशंसादिरूपा, सा ‘स्वभावो' = लक्षणं, यस्य तत्तथा, 'गृह्यते' अङ्गीक्रियते । ननु ज्ञानावरणादिक्षयोपशम एव चक्षुष्टया वक्तुं युक्तः, तस्यैव दर्शनहेतुत्वात्, न तु मिथ्यात्वमोहक्षयोपशमसाध्या तत्त्वरुचिरूपा श्रद्धेत्याशङ्क्याह' श्रद्धाविहीनस्य' तत्त्वरूचिरहितस्य, अचक्षुष्मत इव' = अन्धस्येव, 'रूपमिव' = नीलादिवर्ण इव, यत् 'तत्त्वं' जीवादि लक्षणं, तस्य 'दर्शनम्' = अवलोकनं, तस्य 'अयोगात्' = अनुपपत्तेः । भवत्वेवं, तथाप्यसावन्यहेतुसाध्या स्याद्, न भगवत्प्रसादसाध्येत्याह'न च' = नैव, 'इयं' तत्त्वरुचिरूपा श्रद्धा, 'मार्ग' = सम्यग्दर्शनादिकं मुक्तिपथम् अनुकूलतया, 'सरति' गच्छतीत्येवंशीला, 'माग्र्गानुसारिणी, 'सुखम्' अपरिक्लेशं यथाकथञ्चिदित्यर्थः 'अवाप्यते'।। तत्त्वरुचि, धर्मप्रशंसा एवं तत्त्वप्रशंसा स्वरूप होती है, और यही तत्त्वरुचि चक्षु है।
प्र०-चक्षु कर के तो ज्ञानावरणादि कर्म का क्षयोपशम लेना चाहिए, क्यों कि वही दर्शनक्रिया में कारणभूत है। इसके बदले तत्त्वरुचि क्यों लेते है ? वह तो मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से साध्य होने से चक्षु कैसे कहलायेगी? .
उ०-ठीक है, लेकिन जिस प्रकार चक्षुरहित अन्धे को नील-पितादि वर्णका दर्शन हो सकता नहीं है, इसी प्रकार जीवादि तत्त्वरुचि से शून्य पुरुषको तत्त्वदर्शन हो सकता नहीं है। मात्र ज्ञानावरण कर्मो के क्षयोपशम से अगर तत्त्वज्ञान हो भी जाए तो भी वह प्रतिभास ज्ञान है, तत्त्व दर्शन नहीं । तत्त्वदर्शन तो परिणतिज्ञानरूप होता है, और उसके लिए मोहनीय कर्म का क्षयोपशम एवं तज्जन्य तत्त्वरुचि आवश्यक है । तत्त्वप्रशंसा, तत्त्वअभिलाषा इत्यादि पहले प्रगट हो, बाद में तत्त्वश्रद्धान यानी तत्त्वपरिणति, तत्त्वदर्शन हो सकता है।
प्र०-फिर भी वह तत्त्वरुचि स्वरूप श्रद्धा किसी अन्य हेतु द्वारा साध्य हो, भगवत्प्रसाद द्वारा साध्य क्यों ?
उ०-तत्त्वरुचि पैदा होने के लिए भगवत्प्रसाद इसीलिए कारण है कि यह तत्त्वरुचि, जो कि सम्यग्दर्शन रूप मोक्षमार्ग के प्रति अनुसरण करने के स्वभाव वाली है, वह बिना क्लेश यानी ज्यों कि त्यों प्राप्त नहीं हो सकती है। वह तो अर्हत् परमात्मा के प्रभाव से ही सिद्ध होती है। क्यों कि पहले कह चुके हैं कि अर्हद् भगवान के प्रति बहुमान बिना ऐसा कुछ सिद्ध हो सकता नहीं है।
प्र०-अच्छी बात है; तत्त्वरुचि भगवान के प्रसाद से लभ्य हो, लेकिन इस तत्त्वरुचि का अपने साध्य तत्त्वदर्शन के प्रति अगर अवश्य हेतुभाव न होगा तब क्या?
उ०-ऐसा नहीं है, पूर्वोक्त रुचिरूप श्रद्धा होने पर तत्त्वदर्शन अवश्य रूप से होता ही है। उदाहरणार्थ, जब चक्षु अनुपहत यानी किसी भी दोष से रहित है तो वस्तु का जैसा नील-पीतादि वर्ण है वैसा ही उसका दर्शन होता ही है; इसी प्रकार तत्त्वरुचि होने पर यथार्थ तत्त्वदर्शन होता ही है; नहीं कि दूसरे वर्ण के काच से या पीलियारोग से आक्रान्त चक्षु द्वारा होने वाले विपरीत वर्णदर्शन की तरह विपरीत दर्शन होता है। इसी का समर्थन करते हुए ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं कि निश्चयनय से व्यवहार करने वालों का यह मन्तव्य हैं, कि सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली इस तत्त्वरुचि से तत्त्वदर्शन जो सिद्ध होता है, उस में किसी की ओर से रुकावट निश्चित भाव से हो सकती ही नहीं है, सिवा काल, अर्थात् मात्र काल ही यहां प्रतिबन्धक है। शायद आप पूछेगें कि, -
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