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(ल०-) क्लिष्टदुःखस्य तत्र तत्त्वतो बाधकत्वात् 'सानुबन्धं क्लिष्टमेतद्' इति तन्त्रगर्भः, तद्बाधितास्यास्य तथागमनाभावाद्, भूयस्तदनुभवोपपत्तेः ।
(पं०-) कुत इत्याह 'क्लिष्टदुःखस्य' - क्लिष्टं दुःखयतीति दुःखं कर्म, ततः क्लिष्टकर्मणः, 'तत्र' = निरनुबन्धक्षयोपशमे, 'तत्त्वतः' = अन्तरङ्गवृत्त्या, 'बाधकत्वात्' प्रकृतगुणस्थानस्येति । क्लिष्टस्वरूपमेव व्याचष्टे'सानुबन्धं' = परम्परानुबन्धवत्, क्लिष्टं' = क्लेशकारि, एतत्' कर्म, न पुनस्तत्कालमेव परमक्लेशकार्यपि स्कन्दकाचार्यशिष्यकर्मवद्, महावीरकर्मवद् वा; 'इति तन्त्रगर्भः' = एष प्रवचनपरमार्थः, कुत एतदित्याह 'तद्बाधितस्य' = क्लिष्टकाभिभूतस्य, 'अस्य' = चेतसः, 'तथागमनाभावात्' = अवक्रतया विशिष्टगुणस्थानगमनाभावात् । कुत इत्याह 'भूयः' = पुनः, 'तदनुभवोपपत्तेः,' तस्य = क्लिष्टदुःखस्य अनुभव एवोपपत्तिस्तस्याः । अवश्यमनुभवनीये हि तत्र कथमवर्क चित्तगमनं स्यादिति भावः ।
क्योंकि बाद में उन कर्मो का उदय संभवित है। अतः क्षयोपशम सानुबन्ध होना चाहिए, यानी उत्तरोत्तर उसका प्रवाह बना रहना चाहिए, ताकि विशिष्ट गुणस्थान तक जीव पहुंच जाए। अन्यथा सानुबन्ध क्षयोपशम के अभाव में विशिष्ट गुणस्थान प्राप्त नहीं होगा।
प्र०- सानुबन्ध क्षयोपशम के अभाव में विशिष्ट गुणलाभ क्यों नहीं होता है ?
उ०- कारण यह है कि निरनुबन्ध क्षयोपशम हुआ भी हो, फिर भी उस में क्लेशकारी दुःख देनेवाला क्लिष्ट कर्म उदित हो आन्तरिक रीति से प्रस्तुत गुणस्थान का बाधक होता है। प्रवचन यानी शास्त्र का यह रहस्य है कि 'सानुबन्धं क्लिष्टमेतद्' अर्थात् जो कर्म अनुबन्ध (परंपरा) वाला होता है, अर्थात् जिस कर्म के उदय में पुनः ऐसा ही कर्मबन्ध हुआ करता हो वह कर्म क्लिष्ट यानी क्लेशकारी कहा जाता है। क्लिष्ट कर्म वह नहीं कि जो मात्र तत्काल परम क्लेशकारी हो, जैसे कि स्कन्दकाचार्य के शिष्यों का, या भगवान महावीर प्रभु का कर्म । स्कन्दकसूरि के शिष्यों को द्वेषी पालक मन्त्रीने यन्त्र में डाल डाल कर पीस दिया तो क्लेश यानी दुःख तो उत्कट हुआ; लेकिन वह आगे बार बार नहीं चला; क्यों कि वह कर्म निरनुबन्ध था; सानुबन्ध क्षयोपशम से कर्म ऐसा निरनुबन्ध रहा । शुभ भावना और शुभ अध्यवसाय के बल पर उन्होंने ऐसा अन्तरङ्ग प्रवाहबद्ध क्षयोपशम जारी रखा कि क्लेशकारी कर्म सानुबन्धन बन सका; और वही वे क्षायिक सम्यग्दर्शनादि से लेकर कैवल्य तक पहुंच कर मुक्त हो गए। श्री महावीर भगवान को भी सङ्गमदेव आदि के उपद्रव बरसने पर अत्यन्त दुःख सहना पड़ा, किन्तु सानुबन्ध क्षयोपशम से वह कर्म निरनुबन्ध रहा, क्लिष्ट नहीं रहा। क्लिष्ट कर्म वह बाधक होने का कारण यह है कि उससे अभिभूत हुआ चित्त विशिष्ट गुणस्थान के प्रति गमन नहि कर सकता; क्यों कि वहां पुनः ऐसे कलेशकारी दुःख का अनुभव अबाधित रहता है, कि जिसमें आत्मा की अशुभ चित्त-परिणति के कारण सम्यग्दर्शनादि-योग्य शुभ परिणति उत्थान ही नहीं पा सकती। तब यदि भविष्य में अवश्य भोग करने योग्य कर्म खडे रहे तो वहां गुणस्थान के प्रति चित्त का ऋजुभाव से गमन कहां से हो सके?
प्र०-सम्यग्दर्शन गुण प्राप्त होने पर भी किसी किसी को बाद में मिथ्यात्व पुनः प्राप्त होता है, तो वहां क्लिष्ट दुःख का अभाव कहां रहा ?
उ०-ठीक है, मिथ्यात्व प्राप्त होता भी हो, फिर भी ऐसा जीव पूर्व की तरह अतीव संक्लिष्ट याने सानुबन्ध क्लेशवाला होता ही नहीं है, यह प्रवचन अर्थात् शासनका परम रहस्य है, हृदय है। इसमें कारण यह है
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