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१७. मग्गदयाणं (मार्गदेभ्यः) (ल. मार्गस्वरूपम्) -तथा मग्गदयाणं । इह मार्गः चेतसोऽवक्रगमनं, भुजङ्गमगमननलिकायामतुल्यो विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषः । हेतुस्वरूप-फल-शुद्धा सुखेत्यर्थः ।
(पं०) 'मग्गदयाणं,' 'मार्ग' इहेत्यादि, इह = सूत्रे, मार्गः पन्थाः, स किं लक्षण इत्याह 'चेतसो = मनसो, 'अवक्रगमनं = अकुटिला प्रवृत्तिः, कीदृश इत्याह'भुजङ्गमस्य' = सर्पस्य, 'गमननलिका' शुषिरवंशादिलक्षणा ययाऽसावन्तःप्रविष्टो गन्तुं शक्नोति, तस्य 'आयामो' दैर्घ्य, तेन तुल्यः क्षयोपशमविशेष इतियोगः । किंभूत इत्याह 'विशिष्टगुणस्थानावाप्तिप्रगुणः' इति वक्ष्यमाणविशिष्टगुणलाभहेतुः 'स्वरसवाही' निजाभिलाषप्रवृत्तः 'क्षयोपशमो' दुःखहेतुदर्शनमोहादिक्षयविशेषः, तथाहि, यथा भुजङ्गमस्य नलिकान्तः प्रविष्टस्य (प्र०- प्रवृत्तस्य) गमनेऽवक्र एव नलिकाऽऽयामः समीहितस्थानावाप्तिहेतुः, वक्रे तत्र गन्तुमशक्त (प्रत्य०... मशक्य)त्वाद्, एवमसावपि मिथ्यात्वमोहनीयादिक्षयोपशमश्चेतस इति । तात्पर्यमाह हेतुस्वरूप-फलशुद्धा,' हेतुना = पूर्वोदितधृतिश्रद्धालक्षणेन, 'स्वरूपेण' = स्वगतेनैव, फलेन = विविदिषादिना, शुद्धा, = निर्दोषा, सुखा = उपशम-सुखरूपा सुखासिकेत्यर्थः । एष मार्गस्वरूपनिश्चयः । अर्थात् तुर्त परिणत होने में काल प्रतिबन्धक है। लेकिन यहां काल सहकारी कारण होने से कहा कि काल की रुकावट असल में रुकावट ही नहीं है। काल तो द्रव्य का एक पर्याय (अवस्था) है; क्यों कि कारणद्रव्य अमुक काल से विशिष्ट होने पर कार्य के प्रति परिणत होता है।
इसलिए यह तत्त्वरुचि धर्म-कल्पवृक्ष का अवन्ध्य, अव्यभिचारी बीज रूप है। उसे बोने पर धर्मवृक्ष अवश्य विकसित होता है। यह तत्त्वरुचि जो कि पारमार्थिक चक्षु इन्द्रिय है, वह, पूर्व सूत्र में कहे गए अभयधर्म की तरह, अर्हत् परमात्मा के प्रभाव से प्राप्त होती है। इस प्रकार भगवान चक्षु को देते हैं, इस लिए कहा कि वे चक्षुदाता हैं ॥ १६ ॥ १७. मग्गदयाणं (मार्गः विशिष्टगुणलाभयोग्य चित्तकी अकुटिल प्रवृत्ति यानी उपशमसुख)
'मार्ग' का स्पष्ट स्वरूप:
अब'मग्गदयाणं' पद। पहले 'अभय' से भयरहित धृति, और 'चक्षु' से तत्त्वरुचि यानी धर्मप्रशंसादि गृहीत किया; अब यहां 'मार्ग' कर के मन की अकुटिल प्रवृत्ति समझनी है। ऐसी मनःप्रवृत्ति, सर्पगमन के अनुकूल पोले बांस स्वरूप नलिका, जिससे अंदर दाखिल हुआ सर्प आगे जा सके, -इसकी लम्बाई के समान होती है; और वह क्षयोपशम-विशेष है।
प्र०- यह चित्तकी अकुटिल प्रवृत्ति यानी क्षयोपशम कैसा होता है ?
उ०- वह चित्तप्रवृत्ति आगे कहे जाने वाले शरण एवं बोधि स्वरूप विशिष्ट गुणों के लाभ की हेतुभूत होती है, और वह अपनी अभिलाषा से प्रवृत्त होती है। एवं वह क्षयोपशम दुःखदायी मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के विशिष्ट क्षय स्वरूप होता है। तात्पर्य, जिस प्रकार सर्प को नलिका के भीतर प्रवेश करने के बाद इच्छित स्थान की प्राप्ति हेतु जाने में सरल ही लम्बाई अनुकूल होती है, क्यों कि वक्र में गमन करने के लिए वह असमर्थ होता है;
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