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१६. चक्खुदयाणं (चक्षुर्देभ्यः) (ल०-) तथा 'चक्खुदयाणं' । इह चक्षुः चक्षुरिन्द्रियं, तच्च द्विधा, - द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्येन्द्रियं ब्राह्यनिर्वृत्तिसाधकतमकरणरूपं 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रिय' मिति वचनात् । भावेन्द्रियं तु क्षयोपशम उपयोगश्च, 'लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रिय' मिति वचनात् । ( तत्त्वार्थमहाशास्त्रे अ० २-सूत्र १७, १८)
(पं०-) चक्षुः ‘बाह्यनिर्वृत्ति-साधकतमकरणरुप'मिति, बाह्या बहिर्वर्तिनी, उपलक्षणत्वाच्चास्या अभ्यन्तरा च, निर्वृत्तिः वक्ष्यमाणरूपा, साधकतमं करणंच उपकरणेन्द्रियं ततस्ते रुपं यस्य तत्तथा 'निर्वृत्त्युपकरणे' - त्यादिसूत्रद्वयाभिप्रायोऽयम्, - इहेन्दनादिन्द्रो जीवः, सर्वविषयोपलब्धिभोगलक्षणपरमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गमिन्द्रियं, श्रोत्रादि । तच्चतुर्विधं नामादिभेदात्, तत्रनामस्थापने सुज्ञाने, निर्वृत्त्यपरकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् । तत्र 'निर्वृत्तिराकारः' सा च बाह्या अभ्यन्तरा च । तत्र बाह्या अनेकप्रकारा, अभ्यन्तरा पुनः क्रमेण श्रोत्रादीनां कदम्बपुष्प-धान्यमसूर-अतिमुक्तकपुष्पचन्द्रिका-क्षुरप्र-नानाकारसंस्थाना । उपकरणेन्द्रियं विषयग्रहणे समर्थं, छेद्यच्छेदने खड्गस्येवधारा, यस्मिन्नुपहते निर्वृत्तिसद्भावेऽपि विषयं न गृह्णाति । लब्धीन्द्रियं यस्तदावरणक्षयोपशमः, उपयोगेन्द्रियं यः स्वविषये ज्ञानव्यापार इति।
१६. चक्खुदयाणं (धर्मप्रशंसा रूप रुचि देनेवालों को) द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रियों के प्रकार :
अब ‘चक्खुदयाणं' पद से अर्हत् परमात्मा की चक्षुदाता के रूप में स्तुति की जाती है। चक्षु यह पांच इन्द्रियों में से एक इन्द्रिय है। लेकिन यहां विशिष्ट चक्षु विवक्षित है।
इन्द्रियों के प्रकार : निवृत्ति, उपकरण, लब्धि एवं उपयोग :. इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती हैं :- १. द्रव्येन्द्रिय, और २. भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के भी दो प्रकार हैं, :१. बाह्य निर्वृत्ति, और २ उपकरण । 'बाह्य' निर्वृत्ति नामकी इन्द्रिय बाहिरी आकार स्वरूप होती है। ‘बाह्य कहने से 'आभ्यन्तर' निवृत्ति भी समझ लेना; वह बाह्य के भीतर रहने वाली पौद्गलिक रचना विशेष है। उपकरण इन्द्रिय ज्ञान करने में साधनभूत शक्ति रूप है। भावेन्द्रिय के दो प्रकार हैं; १. क्षयोपशम, एवं २ उपयोग।
तत्त्वार्थ महाशास्त्र के द्वितीय अध्याय में १७ वां १८ वां सूत्र है 'निर्वृत्त्युपकरणेन्द्रियौ द्रव्येन्द्रियम्,' 'लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम्'। दोनों सूत्रों का यह अभिप्राय है :- यहां 'इन्द्रिय' शब्द का अर्थ है इन्द्रका चिह्न । 'इन्द्र' का अर्थ आत्मा होता है, क्यों कि जो इन्दन यानी सर्व विषयों की उपलब्धि और भोग रूप परम ऐश्वर्य का अनुभव करने की क्रिया वाला हो वह इन्द्र कहा जाता है। ऐसे, इन्द्र स्वरूप आत्मा का जो चिह्न है, वह है इन्द्रिय; उदाहरणार्थ श्रोत्रेन्द्रिय आदि। हर एक वस्तु की तरह इन्द्रिय के चार निक्षेप यानी विभाग होते हैं, - (१) नामेन्द्रिय, (२) स्थापना - इन्द्रिय, (३) द्रव्येन्द्रिय और (४) भावेन्द्रिय । नाम-स्थापना इन्द्रिय सुगम हैं; जिस पुरुष का नाम ही इन्द्रिय है वह नामेन्द्रिय है, (अर्थात् नाम मात्र से इन्द्रिय); और जिस में इन्द्रिय की स्थापना को गई है, जैसे कि किसी जीव के चित्र में, वह स्थापना - इन्द्रिय कहलाता है। नाम और स्थापना में यह फर्क है कि नामेन्द्रिय देखने से मन में इन्द्रिय का भाव पैदा नहीं होता है, जो स्थापना-इन्द्रिय देख कर होता है। इसीलिए तो स्थापना - अरिहंत अर्थात् अरिहंत प्रभु की मूर्ति दर्शनकर्ता के मन में अरिहंत परमात्मा के भाव की उत्पादकता
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