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११. लोगनाहाणं (लोकनाथेभ्यः)
(ल० - नाथलक्षणम्) तथा 'लोकनाथेभ्य' इति । इह तु 'लोक' शब्देन तथा इतरभेदाद्वि - शिष्ट एव, तथा तथारागाद्युपद्रवरक्षणीयतया बीजाधानादिसंविभक्तो, भव्यलोकः परिगृह्यते; अनीदृशि नाथत्वानुपपत्तेः । योगक्षेमकृदयमिति विद्वत्प्रवादः ।
(पं०) तथा 'तथे' ति समुदायेष्वपि प्रवृत्ता .... इत्यादिसूत्रं वाच्यमिति 'तथा' शब्दार्थः । एवमुत्तरत्रसूत्रेष्वपि ' तथा ' शब्दार्थो वाच्य इति । तथेतरभेदात्', तथा ' = तत्प्रकारो भव्यरूप एव य 'इतरभेदो' भव्यसामान्यस्य बीजाधानादिना संविभक्तीकर्तुमशक्तिस्तस्माद् 'विशिष्ट एव' = विभक्त एव, ' तथा ' = तेन तेन प्रकारेण, 'रागाद्युपद्रवरक्षणीयतया' रागादय एव तेभ्यो वा उपद्रवो रागाद्युपद्रवः, तस्माद् रक्षणीयता तद्विषयभावादपसारणता, तया 'बीजाधानादिसंविभक्तो' - धर्म्मबीजवपनचिन्तासछु, त्यादिना कुशलाशयविशेषण सर्व्वथा स्वायत्तीकृतेन 'संविभक्त: ' - समयापेक्षया संगतविभागवान् कृतः, भगवत्प्रसादलभ्यत्वात् कुशलाशयस्य, 'भव्यलोकः' उक्तस्वरूप : 'परिगृह्यते'- आश्रीयते, कुत इत्याह ' अनीदृशि' - बीजाधानाद्यसंविभक्ते अविषयभूते 'नाथत्वानुपपत्तेः ' - भगवतां नाथभावाघटनात् । कुतः ? यतो 'योगक्षेमकृद्'- योगक्षेमयोः कर्त्ता, 'अयमिति'नाथ इत्येव 'विद्वत्प्रवाद: ' - प्राज्ञप्रसिद्धिः ।
११ लोगनाहाणं (बीजाधानादि - योग्य भव्यों के नाथ )
यहां 'लोग' का अर्थ बीजाधानादि-योग्य भव्य जीवः
यहां 'तथा' शब्द से जो प्रारंभ करते है उस 'तथा' शब्द का अर्थ यह है कि समुदाय के निर्वचन में प्रवर्तमान शब्द एक देश में भी प्रवृत्त होता है इस भावका पूर्वोक्त सूत्र यहां भी पढना, और आगे सूत्रों में भी पढना, यही 'तथा' शब्द का अर्थ है। तो यहां 'लोगनाहाणं' पद में 'लोग' शब्द से उस प्रकार विशिष्ट ही भव्य लोक गृहीत करने का है । सामान्यतः सभी भव्य बीजाधानादि से विभाग करने शक्य नहीं हैं, अर्थात् सभी भव्यों में एकसाथ धर्म बीज के आधानादि कराना शक्य नहि है कि जिससे भगवान उन सभी का नाथ हो सके । अतः जिन भव्यसमूह अभी बीजाधानादि के द्वारा विभक्त करना शक्य नहीं है ऐसे, दूसरे प्रकार के भव्य सामान्य से विभिन्न भव्यसमूह यहां विशिष्ट भव्यलोग कर के लेना । वे ही रागादि स्वरूप या रागादि के उपद्रवों से उस उस प्रकार रक्षणीय हैं अर्थात् रागादि आन्तर उपद्रवों के विषय न हों इस प्रकार इन से दूर कराने योग्य हैं। इस से वे भव्य जीव धर्म्म- बीजाधानादि द्वारा दूसरों से संविभक्त होते हैं। तात्पर्य, धर्म्मप्रशंसा स्वरूप धर्मबीजका वपन, और धर्मअभिलाषा सम्यग् धर्म-श्रवण इत्यादि रूप अङ्कुरादि-सर्जन, जो कि आन्तरिक रूप में विशिष्ट प्रकार का कुशल आशय स्वरूप है; इन्हें परमात्मा भव्यों को सर्वथा स्वाधीन कराते है । फलतः वे भव्य जीव संविभक्त यानी उस काल की या शास्त्र की अपेक्षा से दूसरे भव्यों से सङ्गत विभागवाले किये जाते हैं। वे यहां 'लोग' शब्द से ग्राह्य हैं। ऐसा परमात्मा द्वारा हो सकने का कारण यह है कि शुभ आशय, भगवान के प्रसाद से अर्थात् प्रभु के प्रभाव से, लभ्य है। इस से यह सूचित होता है कि शुभ आशय होने में जीव का पुरुषार्थ और अन्य निमित्त कारणभूत होते हुए भी भगवान की कृपा, भगवान का प्रभाव बड़ा निमित्त कारण है। इसलिए यह ख्याल कि भगवान तो वीतराग होने से कुछ सामर्थ्य वाले नहीं, हमें जो शुभ प्राप्त होते हैं इनमें हमारा पुरुषार्थ ही कारण है- यह ख्याल भ्रमपूर्ण है। इसलिए धर्मबीजादि सब होने में परमात्मा का अत्यन्त उपकार मानना यह कृतज्ञता पालित होती है और वह अत्यावश्यक एवं अधिकाधिक शुभ भावों की वर्धक है ।
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