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(ल०-अभयं = विशिष्टमात्मस्वास्थ्यम्-) इह भयं सप्तधा इहपरलोकाऽऽदानाकस्मादाजीवमरणाश्लाघाभेदेन । एतत्प्रतिपक्षतोऽभयमिति विशिष्टमात्मनः स्वास्थ्यम्, निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता धृतिरित्यर्थः ।
भवनिर्वेद ही भगवद्-बहुमान कैसे ? :
प्र०- क्या, आदमी कितना ही भवाभिनंदी याने संसाररसिक हो, फिर भी वह भगवद्-बहुमान से अभयादि प्राप्त कर सकता है ?
उ०-जो भवाभिनंदी है, अर्थात् जिसे भवनिर्वेद नहीं है, उन्हें न तो सच्चा भगवद् बहुमान हो सकता है, न तो अभयादि प्राप्त हो सकता है। इसीलिए तो कहा है कि भवनिर्वेद ही वास्तविक भगवद्-बहुमान है। वास्तव में अर्हत्-पक्षपात भवनिर्वेद स्वरूप ही है। क्यों कि अर्हत् प्रभु भव से पर है, उनका पक्षपात भव-नाश का ही पक्षपात हुआ, और वह विना भवनिर्वेद हो सकता नहीं है। भवनिर्वेद का अर्थ है संसार के प्रति उद्वेग, व्याकुलता, इत्यादि । जैसे कि जीव को जो संसार सुखरूप लगता है वह असल में क्या है? शरीर, संपत्ति, इष्टजन-संयोग, इत्यादि न? किंतु
कायः संनिहितापायः संपदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः सर्वमुत्पादिभङ्गुरम् ।।
रोग, जरा, मृत्यु आदि शरीर के निकट ही रहते हैं, (तो इससे चिरस्थायी निर्द्वन्द्व आनन्द कहांसे मिल सके ?) संपत्तियाँ कई बार आपत्तियों का कारण बनती हैं, (इससे तो जहाँ सुख की अपेक्षा दुःख आ गिरता है, वहाँ शुद्ध सुख की क्या आशा ?); इष्ट जन आदि के समागम वियोग में परावर्तित हो जाते हैं, (फलतः, इष्ट समागम के पूर्व जितना दुःख का अनुभव होता था, समागम नष्ट होने पर उल्टा अधिक क्लेश महसूस होता है, तो सच्चा सुख कहां रहा ?; संसार में जो कुछ सुख साधन प्रतीत होते हैं, वे सभी अनादि नहीं किन्तु उत्पत्तिशील होते हैं और उत्पत्ति के पीछे नाश तो लगा ही रहता है। (अत: जब साधन ही विनश्वर है तो फिर उनके अधीन रहनेवाला सुख कायम कैसे?)
इस प्रकार की जो चिन्ता बनी रहती है, उसका नाम है भवनिर्वेद । यही कल्याण का उपाय है। इसके द्वारा भगवान ही उस-उस प्रकार से जीवों के कल्याण के हेतु बनते हैं।
प्रश्न-कल्याण हेतु तो भवनिर्वेद हुआ; भगवान कैसे?
उत्तर - भवनिर्वेद ही तत्त्वरूप से भगवद्-बहुमान है, और इसी के द्वारा विशिष्ट कर्म याने मिथ्यात्वमोहनीय कर्म, जीस की वजह अभय, चक्षु आदि प्राप्त नहीं होते हैं एवं तत्त्व पर अरुचि और अतत्त्व पर रुचि होती है, उस कर्म का क्षयोपशम हो जाता है, अर्थात् विशिष्ट क्षय होता है। फलतः अभय, चक्षु, मार्ग, शरण आदि धर्म प्रगट होते हैं। और इन धर्मो को प्रगट करने की अत्यावश्यकता है, क्यों कि इनके बिना निःश्रेयस याने मोक्ष के साधक सम्यग्दर्शनादि धर्म सिद्ध नहीं हो सकते हैं । तात्पर्य, भवनिर्वेद स्वरूप भगवद्-बहुमान से कल्याण की प्राप्ति होती है। अब देखिए कि जब भगवद्-बहुमान यह अभय आदि द्वारा कल्याण का हेतु है, तब मूल में अर्हद भगवान ही कल्याण के हेतु रूप से सिद्ध होते हैं । क्यों कि अर्हत् परमात्मा की ऐसी विशेषता है, वे ही ऐसे प्रभावशालि पुरुष हैं कि जिनका बहुमान करने से अभयादि द्वारा कल्याण सिद्ध होते हैं; औरों के बहुमान से ऐसा कुछ सिद्ध हो सकता नहीं है। निष्कर्ष यह आया कि खुद अरहंत प्रभु अभयदान आदि के प्रकार से सम्यक्त्वादि कुशल परंपरा स्वरूप कल्याणों के कारण बनते हैं। इस वास्ते साधक को उनके ऐसे प्रभाव के प्रति ऐसी श्रद्धा
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