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१५. अभयदयाणं ( अभयदेभ्यः )
( ल०-भगवद्बहुमानादेव अभयादिसिद्धि :- ) साम्प्रतं भवनिर्वेदद्वारेणार्थतो भगवद्बहुमानादेव विशिष्टकर्म्मक्षयोपशमभावादभयादिधर्म्मसिद्धेः, तद्व्यतिरेकेण नैःश्रेयसधर्म्मासम्भवाद्, भगवन्त एव तथा तथा सत्त्व (प्र०... सर्व ) कल्याणहेतवः इति प्रतिपादयन्नाह ' अभयदयाण' मित्यादिसूत्रपञ्चकम् । (पं० - )' भवनिर्वेदमि' त्यादि, भवनिर्वेदः संसारोद्वेगो, यथा,
‘कायः संनिहितापायः सम्पदः पदमापदाम् । समागमाः सापगमाः सर्व्वमुत्पादिभङ्गुरम् ॥'
"
एवं चिन्तालक्षणः, स एव 'द्वारम् ' = उपायस्तेन, भगवन्त एव तथा तथा सत्त्वकल्याणहेतव इत्युत्तरेण सम्बन्धः । कथमित्याह 'अर्थतः ' = तत्त्ववृत्त्या, ‘भगवद्बहुमानादेव' = अर्हत्पक्षपातादेव, भवनिर्वेदस्यैव भगवद्बहुमानत्वात्; ततः किमित्याह 'विशिष्टकर्म्मक्षयोपशमभावाद्' = विशिष्टस्य मिथ्यात्वमोहादेः कर्मणः क्षयोपशमः उक्तरुपस्तद्भावात् । ततोऽपि किमित्याह 'अभयादिधर्म्मसिद्धेः ' = अभयचक्षुर्मार्गशरणादिधर्म्मभावात् । व्यतिरेकमाह 'तद्व्यतिरेकेण' = अभयादिधर्म्मसिद्ध्यभावेन, 'नैःश्रेयसधम्र्म्मासम्भवात् ' निःश्रेयसफलानां सम्यदर्शनादिधर्माणामघटनात् । 'भगवन्त एव' अर्हल्लक्षणाः, 'तथा तथा' अभयदानादिप्रकारेण, 'सत्त्वकल्याणहेतव:' = सम्यक्त्वादिकुशलपरंपराकारणमिति ।
है । इस लिए 'लोगुत्तमाणं' आदि पांच पदों की बनी हुई यह संपदा स्तोतव्य-संपदा की सामान्य रूप से उपयोगसंपदा कही जाती है; क्यों कि अरिहंत प्रभु का सामान्य रूप से क्या उपयोग है, यह इस में बतलाया। अब विशेष रूप से उपयोगसंपदा दिखलाने के पूर्व सामान्योपयोग-संपदा के हेतु की संपदा जो पांच पदों से बनी हुई है, उसे
कहते हैं।
१५. अभयदयाणं ( अभयदाता को )
सामान्योपयोग संपदा की हेतुसंपदा -
अब पूर्वोक्त सामान्य-उपयोग-संपदा की हेतुसंपदा के पांच पद चालू होते है; अर्थात् स्तोतव्य श्री अर्हत् परमात्मा के लोकोत्तमतादि प्रदर्शित करते हुए परोपकार-करण स्वरूप जो उपयोग बतलाया, इसमें हेतु क्या क्या हैं उन्हें बतलाने के लिए अब 'अभयदयाणं' आदि पांच पद दिये जाते है । इन पदों से अभय आदि के दाता को नमस्कार करने का विविक्षित है। यहां प्रश्न हो सकता है कि :
प्रo - अर्हत् परमात्मा अभय आदि के दाता कैसे ?
उ०- समाधान यह है कि अभय - चक्षु-मार्ग- शरण, इत्यादि धर्म अर्हद् भगवान् के प्रति बहुमान होने से ही सिद्ध होते है; इनकी प्राप्ति में भगवद्- बहुमान ही कारण है।
प्रo - तब तो यह हुआ कि अभय आदि धर्म भगवद्- बहुमान से मिला; अर्हद् भगवान से कैसे ?
उ०- ठीक है। लेकिन इतना तो सोचिये कि बहुमान के पात्रभूत खुद अर्हद् भगवान का अस्तित्व ही न होता तो ऐसा बहुमान ही कैसे उपस्थित हो सकता ? यों तो बहुमान परमपुरुष को छोड कर भी दूसरे पर कितना ही किया जाता है लेकिन इससे अभयादि धर्म कहां सिद्ध होते है ? अतः यह अवश्य मानना होगा कि अर्हद् भगवान ही ऐसे अनंत प्रभावी हैं कि जो बहुमान द्वारा अभयादि धर्म के दाता बनते हैं, अन्य कोई नहीं ।
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