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१३. लोगपईवाणं (लोकप्रदीपेभ्यः )
(ल०-लोक: = प्रकाशितज्ञेयभावो विशिष्टसंज्ञिलोकः)
तथा 'लोकप्रदीपेभ्य:' । अत्र लोकशब्देन विशिष्ट एव तद्देशनाद्यंशुभिर्मिथ्यात्वतमोऽपनयनेन यथार्हं प्रकाशितज्ञेयभावः संज्ञिलोकः परिगृह्यते; यस्तु नैवंभूतः तत्र तत्त्वतः प्रदीपत्वायोगाद् अन्धप्रदीपदृष्टान्तेन यथा ह्यन्धस्य प्रदीपस्तत्त्वतोऽप्रदीप एव, तं प्रति स्वकार्याकरणात् तत्कार्यकृत एव च प्रदीपत्वोपपत्तेः अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । अन्धकल्पश्च यथोदितलो कव्यतिरिक्तस्तदन्यलोकः, तद्देशनाद्यंशुभ्योऽपि तत्त्वोपलम्भाभावात्; समवसरणेऽपि सर्वेषां प्रबोधाश्रवणात्; इदानीमपि तद्वचनतः प्रबोधादर्शनात् ।
तदभ्युपगमवतामपि तथाविधलोक दृष्ट्यनुसारप्राधान्यादनपेक्षितगुरुलाघवं तत्त्वोपलम्भशून्यप्रवृत्तिसिद्धेरिति । तदेवंभूतं लोकं प्रति भगवन्तोऽपि अप्रदीपा एव, तत्कार्याकरणादित्युक्तमेतत् ।
पर भी, उस क्रिया के कर्ता की ऐसी प्रवृत्ति के हिसाब से जड़ पदार्थ क्रिया का कर्म हो सकता है।
ठीक, इसी प्रकार यथार्थ दर्शनादि क्रिया से हित- योग भी जड़ पदार्थ में न होने पर भी उस क्रिया के कर्ता की ऐसी प्रवृत्ति के हिसाब से ही हित-योग जड़ वस्तु में उपचार से नहीं परन्तु मुख्य रूप से कहा जा सकता स्तुत की गई कि अर्हत् परमात्मा जड़ चेतन समस्त लोक के यथार्थदर्शनादि करते होने से, लोगों के हित स्वरूप है यह स्तुति वाक्य यथार्थदर्शनादि क्रियाके कर्ता का हित प्रवृत्ति के हिसाब से औपचारिक नहीं परन्तु मुख्य रूप से है । अत: स्तुति में कोई विरोध नहीं है ।
१३. लोगपईवाणं (प्रकाश पानेवाले लोक के प्रति प्रदीपरूप भगवान को नमस्कार )
अब ‘लोगपईवाणं' पद यहां 'लोग' शब्द से समस्त जीव लोग नहीं किन्तु ऐसे विशिष्ट संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव लोग ही ग्राह्य है कि जिन्हें अर्हत् परमात्मा के देशना (उपदेश) स्वरूप किरणों से मिथ्यात्व - अन्धकार नष्ट होकर ज्ञेय पदार्थो का यथायोग्य प्रकाश होता है। ऐसे लोगों के प्रति ही प्रभु प्रदीप रूप हैं; क्यों कि जो ऐसा नहीं है अर्थात् प्रकाश ग्रहण के लिए समर्थ नहीं है उस के प्रति अन्धप्रदीप के दृष्टान्त से वस्तुगत्या प्रदीपरुपता नहीं बन सकती । दृष्टान्त इस प्रकार है, - जैसे अंधे के प्रति दीवा वस्तुतः दीवा ही नहीं है; कारण, उस के प्रति वह वस्तु दर्शन कराने का अपना कार्य ही करता नहीं है। दीपकपन तो, अपना कार्य कर सके, उस में ही सङ्गत हो सकता है। अगर ऐसा न हो, तो अतिप्रसङ्ग दोष लगेगा; अर्थात् घड़ा, दीवार आदि भी वस्तु प्रकाश कराने का कार्य न करते हुए भी दीपक क्यों न कहा जाए? इस प्रकार पूर्वोक्त प्रकाश ग्रहण समर्थ विशिष्ट संज्ञी लोक से भिन्न लोक अंधे समान है; क्यों कि उन्हें अर्हत् परमात्मा के उपदेश - किरणों से तत्त्व का प्रकाश नहीं होता है। प्रभु की देशनाभूमि जो समवसरण, उस में आये हुए सभी को प्रतिबोध होता है ऐसा शास्त्र में कही सुना जाता नहीं है । एवं अब भी शास्त्र में संगृहीत किये प्रभुवचन से सभी को बोध होने का दिखाई पडता नहीं है। तो अर्हत् प्रभु ऐसे अंधे तुल्य लोक के प्रति प्रदीप रूप नहीं है।
व्यवहारनये प्रदीप अर्थात् सर्व प्रति प्रदीप :
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