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(ल०-) न चायं सर्वथा प्रकाशाभेदे । अभिन्नो ह्येकान्तेनैकस्वभावः; तन्नास्य दर्शनभेदहेतुतेति ।
(पं०-) यद्येवं ततः किम् ? इत्याह 'न च','अयं' = महान् दर्शनभेदः, 'सर्वथा प्रकाशाभेदे' = एकाकार एव श्रुतावरणादिक्षयोपशमलक्षणे प्रकाशे इत्यर्थः । एतदेव भावयति 'अभिन्नो' = ऽनानारूपो, 'हिः' = यस्माद्, 'एकान्तेन' = नियमवृत्त्या, 'एकस्वभावः' = एकरूपः प्रकाश इति प्रकृतम् । एकान्तेनैकस्वभावे हि प्रकाशे द्वितीयादिस्वभावाभाव इति भावः । प्रयोजनमाह 'तत्' = तस्मादेकस्वभावत्वात्, 'न', 'अस्य' = प्रकाशस्य, 'दर्शनभेदहेतुता' = दृश्यवस्तुप्रतीतिविशेषनिबन्धनता।
| अनंतभाग असंख्येयभाग | संख्येयभाग | संख्येयगुण असंख्येयगुण | अनंतगुण ही ५०० वा भागहीन| ५० वा भागहीन | ५ वा भागहीन न = २० लक्षहीन । = २ करोड़हीन = २० करोड़हीन | २० करोड | २ करोड २० लक्ष
= ९९८० लक्ष = ९८०० लक्ष | = ८० करोड वृ| १ अरब १ अरब
१ अरब | द २० लक्ष २ करोड | २० करोड ५ अरब | ५० अरब ५०० अरब
इस प्रकार परस्पर में महान ज्ञान-तारतम्य अर्थात् दर्शन-भेद होता है। उसके प्रति श्रुतज्ञानावरण कर्म का भिन्न भिन्न क्षयोपशम स्वरूप प्रकाश काम करता है। इससे, यदि सब को अभिन्न यानी एकरूप श्रुतावरणक्षयोपशम माना जाय तो उसके कार्य रूप से यह महान दर्शन-भेद घटित नहीं हो सकता। अभिन्न प्रकाश में तो नियमा एक स्वभाववाला क्षयोपशम है, उसमें एक ही प्रकार का दर्शन (दृश्यवस्तु का बोध) कराने की ताक़त हो सकती है। तात्पर्य कि एकान्त एक स्वभाववाले प्रकाश याने क्षयोपशम में दूसरा तीसरा स्वभाव हो सकता नहीं हैं । फलतः क्षयोपशम एक ही स्वभाववाला होने के कारण यह ज्ञेय वस्तु की एकरूप प्रतीति कराए, परन्तु भिन्न भिन्न प्रकार की प्रतीति नहीं करा सकता । कारण आगे बताते हैं, -
स्वभावभेद क्यों ? :
एक ही स्वभाव का क्षयोपशम भिन्न भिन्न प्रकार का बोध क्यों नहीं करा सकता है, इस में हेतु यह है कि कोई एक क्षयोपशम रूप प्रकाश अपने एक निश्चित स्वभाव से एक द्रष्टा को एक ही दर्शन क्रिया में सहकारी कारण बनता है। अन्य द्रष्टा को अगर उसके समान दर्शन वह न कराता हो, तो कहना होगा कि वह क्षयोपशम दूसरे द्रष्टा को दर्शन कराने में उसी स्वभाव से सहकारी नहीं बन सकता । उसका भावार्थ यह है कि पहले कहे अनुसार १४ पूर्वियों के वस्तुबोध में तरतमता होती है। और उनको, उसका बोध होने में, सहकारी कारणभूत है श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम । अब यदि वह क्षयोपशम एक ही स्वभाव वाला हो तो वह सभी बोध करनेवाले चौदह पूर्वियों को एक समान ही बोध कराएगा। परन्तु बोध यदि समान नहीं है, किन्तु विभिन्न प्रकार का है, तो मान लेना चाहिए कि उसमें कारणभूत क्षयोपशम सब के लिए एक ही स्वभाववाला नहीं है, किन्तु विभिन्न स्वभाव वाला है। यदि वैसे विभिन्न प्रकार के स्वभावों का स्वीकार न किया जाय तो इस प्रकार उसके स्वरूप का विरोध खडा होता है :- जब भिन्न भिन्न द्रष्टा के दर्शन परस्पर समान नहीं है तब जैसे कि उन दो में से दूसरे द्रष्टा को दर्शन कराने में उपयोगी एक प्रकाश का जो स्वभाव है उसमें पहले द्रष्टा को उपयोगीपन मानना, वह व्याहत है, यानी दूसरे द्रष्टा के उपयोगीपन से ही निषेधित होता है। दोनों के दर्शन यदि अलग, तो दर्शन-उपयोगी प्रकाश
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