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१४. लोगपज्जोअगराणं (लोकप्रद्योतकरेभ्यः) (ल०-लोकः = उत्कृष्टमतिश्रीगणधराः) तथा, 'लोकप्रद्योतकरेभ्यः' । इह यद्यपि लोकशब्देन प्रक्रमाद् भव्यलोक उच्यते, "भव्यानामालोको वचनांशुभ्योऽपि दर्शनं यस्मात् । एतेषां भवति तथा, तद्भावे व्यर्थ आलोकः ॥" इति वचनात्; तथाप्यत्र लोकध्वनिनोत्कृष्टमतिः भव्यसत्त्वलोक एव गृह्यते, तत्रैव तत्त्वतः प्रद्योतकरणशीलत्वोपपत्तेः।
(पं०-) 'प्रक्रमाद्' इति आलोकशब्दवाच्यप्रद्योतोपन्यासान्यथानुपपत्तेरिति, 'भव्यानाम्' इत्यादि, भव्यानां नाभव्यानामपि, 'आलोकः' = प्रकाशः सद्दर्शनहेतुः श्रुतावरणक्षयोपशमः । इदमेवान्वयव्यतिरेकाभ्यां भावयन्नाह 'वचनांशुभ्योऽपि' = प्रकाशप्रधानहेतुभ्यः, किं पुनस्तदन्यहेतुभ्य इति 'अपि' शब्दार्थः; 'दर्शनं' = प्रकाश्यावलोकनं, 'यस्मादि'ति हेतौ, ‘एतेषां' = भव्यानां, 'भवति' = वर्त्तते, 'तथा' इति यथा दृश्यं वस्तु स्थितम् । ननु कथमित्थं नियमो, भव्यानामप्यालोकमात्रस्य वचनांशुभ्यो भावात् ? इत्याह 'तदभावे' = तथादर्शनाभावे, 'व्यर्थः' = अकिञ्चित्करस्तेषाम् 'आलोकः' । स आलोक एव न भवति, स्वकार्यकारिण एव वस्तुत्वात् । 'इतिवचनात्' = एवंभूतश्रुतप्रमाण्यात् । अर्हत् प्रभु विशिष्ट संज्ञी लोक के प्रति प्रदीप रूप हैं। और इसीलिए अन्य अयोग्य जीव के प्रति प्रदीपरूप न बन सकने के कारण अभगवान-असमर्थ नहीं कहा जा सकता। यदि अयोग्य के प्रति भी एसी सामर्थ्य मान लें तो तो इससे अचेतन को चेतन और चेतन को अचेतन करने वाली सामर्थ्य क्यों न मानी जाय ? और यदि ऐसा हो तो अपने को भी महा मिथ्यादृष्टि इत्यादि स्वरूप अन्य कुछ भी करने की सामर्थ्य क्यों न मानें ? परन्तु ऐसा नहीं है। इसलिए, प्रभु को अमुक संज्ञी जीवों के प्रति ही प्रदीपरूप कहने में असमर्थता की यानी अ-भगवानपन की आपत्ति देना वह गलत है। अतः सिद्ध है कि अर्हत् परमात्मा पूर्वोक्त विशिष्ट संज्ञी भव्य जीवों की अपेक्षा से ही लोकप्रदीप हैं।
१४. लोगपज्जोअगराणं (गणधरजीवों को प्रद्योतकारी को)
अब 'लोगपज्जोअगराणं' (लोकप्रद्योतकरेभ्यः) पद में अलबत्त प्रकरण वश तो 'लोक' शब्द से भव्य लोक लिया जाता है, अभव्य नहीं, क्यों कि अन्यथा 'प्रद्योत' शब्द का उपन्यास सङ्गत हो सकता नहीं है। प्रद्योत कहो या आलोक कहो, इसका अर्थ विशिष्ट प्रकाश होता है; और ऐसा विशिष्ट ज्ञानप्रकाश तो भव्य जीवों को ही हो सकता है। शास्त्रप्रमाण भी ऐसा मिलता है कि 'भव्यानामालोको वचनांशुभ्योऽपि दर्शनं यस्मात् । एतेषां भवति तथा, तदभावे व्यर्थ आलोकः ॥'
आलोक अर्थात् प्रकाश, जो कि श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप है और समीचीन दर्शन का कारण है, वह भव्य जीवों को ही होता है, नहीं कि अभव्य जीवों को। क्यों कि इस बात को अन्वय और व्यतिरेक से अर्थात् विधि एवं निषेध-मुख से सोचते हुए कहते है कि, अन्य साधनों से तो क्या, लेकिन प्रकाश के मुख्य साधनभूत अर्हद्-वचन रूपी किरणों से भी प्रकाश द्वारा यथार्थ दर्शन भव्यों को ही हुआ देखते है; दृश्य वस्तु जिस रूप में अवस्थित है उस रूप में ही उन्हीं को दर्शन होता है। प्र०- इस प्रकार का नियम कैसे कि भव्यों को भगवद्वचन से आलोक द्वारा सद्-दर्शन होता ही है ?
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