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(ल०-योगक्षेमशब्दार्थः) औपचारिकवाग्वृत्तेश्च पारमार्थिकस्तवत्वासिद्धिः तदिह येषामेव बीजाधानोद्भेदपोषणैर्योगः क्षेमं च तत्तदुपद्रवाद्यभावेन, त एवेह भव्याः परिगृह्यन्ते ।
(पं-) उपचारतस्तर्हि महान्नाथो भविष्यतीत्याशङ्क्या 'औपचारिवाग्वृत्तेश्च' उपचारेणानाथे आधिक्यसाधर्म्यान्नाथधर्माध्यारोपेण भवा औपचारिकी, सा चासौ वाग्वृत्तिश्च तस्याः; 'च' पुनरर्थे । 'पारमार्थकस्तवत्वासिद्धि:' = सद्भूतार्थस्तवरूपासिद्धिः; इत्यनीदृशि नाथत्वानुपपत्तेरिति पूर्वेण योग: । 'तत्' तस्माद्, ‘इह' = सूत्रे, ‘येषामेव ' = वक्ष्यमाणक्रियाविषयभूतानामेव, नान्येषां, 'बीजाधानोद्भेदपोषणैः' धर्मबीजस्य 'आधानेन' प्रशंसादिना, 'उद्भेदेन' = चिन्ताङ्कुरकरणेन, 'पोषणेन' सत् श्रुत्यादिकाण्डनालादिसम्पादनेन, 'योगः ' = अप्राप्तलाभलक्षण:, 'क्षेमं' च = लब्धपालनलक्षणं, 'तत्तदुपद्रवाद्यभावेन' 'तत्तदुपद्रवाः ' = चित्ररूपाणि नरकादिव्यसनानि 'आदि' शब्दात् तन्निबन्धनभूतरागादिग्रहः, तेषाम् ' अभावेन'-अत्यन्तमुच्छेदेन, 'त एव' = नान्ये, 'भव्याः ' उक्तरूपाः, परिगृह्यन्ते' !
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महान है इसी लिए नाथ है एसा नहीं कहा जा सकता; क्यों कि योगक्षेम स्वरूप उपकार करनेवाले में ही वास्तविक नाथता होती है। एसा उपकार किये विना नाथता किस प्रकारकी ?
औपचारिक स्तवना से क्या ? योग-क्षेम के अर्थ
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प्र०-ठीक हैं, योगक्षेम करनेवाला मुख्यतः नाथ हो परन्तु जो महान है, उसे भी उपचार से तो नाथ कहा जा सकता है न ?
उ०- इस प्रकार कहने में कोई विशेष अर्थ सिद्ध होता नहीं है। क्यों कि औपचारिक अर्थात् गौणभाव वचन प्रयोग द्वारा वास्तविक स्तवना सिद्ध नहीं हो सकती है। जैसे सच्चे नाथ में अन्य की अपेक्षा अधिकता होती है, वैसे योगक्षेम नहीं कर सकने वाले में भी, दूसरी तरह की गुणसमृद्धि आदि की महत्ता को लेकर, अन्य की अपेक्षा अधिकता तो है, परन्तु इस प्रकार की अधिकता मात्र की समानता पर औपचारिक नाथपन का आरोपण करना और नाथ के रूप में स्तवना का वचन व्यवहार करना, इससे वह स्तवना वास्तविक अर्थवाली स्तवना के समान नहीं बन सकती है। अतः ऐसी स्तवना का क्या विशेष अर्थ हो सकता है? इसी लिए पहले कहा गया कि योगक्षेम रहित में नाथत्व संभवित नहीं है । अरिहंत परमात्मा में दूसरी प्रकार की कितनी ही गुण-समृद्धि की महत्ता हो, परन्तु उन्हें नाथ तो तभी कहा जा सकता है कि वे योग्य भव्य जीवों को योगक्षेम करते हों । और तभी उनकी नाथ स्वरूप की स्तवना, औपचारिक नहीं परन्तु वास्तविक मानी जा सके। इसी लिए ‘लोकनाथेभ्य:' सूत्र में लोक शब्द से उन्हीं भव्य जीवों को लेना है कि जिनमें अर्हत्प्रभु द्वारा धर्मबीज का आधान, बीज में से अंकुरादि का निष्पादन, पोषण,.... इत्यादि अप्राप्य की प्राप्ति स्वरूप 'योग' कराया जाता हो तथा विविध नरकादि दुःख रूपी उपद्रवों और उनके कारणभूत रागादि दोषों के निवारण द्वारा धर्मबीजादिके संरक्षण स्वरूप 'क्षेम' किया जाता हो । यहाँ धर्मप्रशंसादि यह धर्मबीज का आधान है। धर्म चिंता अर्थात् धर्म की सच्ची सतत अभिलाषा आदि यह अंकुर है। और धर्म का सम्यक् श्रवण इत्यादि यह मूल और शाखादि के रूप में है ।
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उसमें से दो निष्कर्ष निकलते है । एक तो, श्री तीर्थंकर भगवान वास्तविक नाथ है; और दूसरा, नाथ भी योगक्षेम के लिए पात्र ऐसे भव्य जीवों के ही होते हैं ।
सर्व भव्यों के नाथ क्यों नहिं ?
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