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( ल०- - इष्टव्याख्या-प्रकारौ :-)
इत्थमेव तदिष्टोपपत्तेः । इष्टं च सपरिणामं हितं, स्वादुपथ्यान्नवदतिरोगिणः ।
(पं-) 'इत्थमेव' अनेनैव यथात्म (प्रत्य०... याथात्म्य) दर्शनादि प्रकारेण, 'तस्य' सद्भूतदर्शनादिक्रियाकर्तुः, 'इष्टोपपत्तेः' = इष्टस्य क्रियाफलस्य चेतनेष्वचेतनेषु वा विषये क्रियायां सत्यां स्वगतस्य, चेतन विशेषेतु तु स्वपरगतस्या वा घटनात् । इष्टमेव व्याचष्टे - इष्टं पुनः 'सपरिणामम्' उत्तरोत्तरशुभफलानुबन्धि, 'हितं' सुखकारि, प्रकृत हितयोगसाध्योऽनुग्रह इति भाव: । दृष्टान्तमाह 'स्वादुपथ्यान्नवत्'
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स्वादुश्च जिह्वेन्द्रियप्रीणकं, पन्था इव पन्थाः सततोलङ्घनीयत्वाद् भविष्यकालः तत्र साधु, पथ्यं च स्वादुपथ्यं, तच्च तदन्नं च, तद्वत् । 'अतिरोगिणः ' = अतीतप्रायरोगवतः; अभिनवे हि रोगे 'अहितं पथ्यमत्यातुरे' इतिवचनात् पथ्यानधिकार एवेति । ‘इतिरोगिण:' इति पाठे, 'इति' = एवंप्रकार: स्वादुपथ्यान्नार्हो यो रोगस्तद्वत इति । स्वादुग्रहणं तत्कालेऽपि सुखहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् । अस्वादुत्वे च पथ्यस्याप्यतथाभूतत्वान्नैकान्तेनेष्टत्वमिति । उपचारतश्च स्वादुपथ्यान्नस्येष्टत्वं, तज्जन्यानुग्रहस्यैवेष्टत्वाद्, यथोक्तं :
‘कज्जं इच्छंतेणं अणंतरं कारणंपि इट्ठति । जह आहारजतित्तिं इच्छंतेणेह आहारो ॥' एवमिष्टहेतुत्वादियं क्रियाऽपि हितयोगलक्षणा इष्टा सिद्धेत्यत एव ।
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प्र० - अलोक का अर्थ तो लोक नहीं, फिर उसका लोक में समावेश किस प्रकार होता हैं ?
उ०- पांच अस्तिकाय लोक में आकाशास्तिकाय तो गिना ही है। उस में ही लोकाकाश और अलोकाकाश अर्थात् लोक और अलोक दोनों मिल जाते हैं। इसी लिए पंचास्तिकाय लोक में अलोक का भी समावेश हो जाता है। फर्क केवल यही रहता है कि पंचास्तिकाय लोक में 'लोक' शब्द का अर्थ है 'जिसका अवलोकन हो, ज्ञान हो, वह वस्तुमात्र' । यही लोक शब्द का व्युत्पत्ति-अर्थ है । लेकिन इस पंचास्तिकाय लोक में समाविष्ट अलोकका वाचक 'अलोक' शब्द उसका निषेध स्वरूप नहीं परन्तु रुढ़ 'लोक' शब्द के निषेधस्वरूप है, अतः कोई विरोध नहीं है। इस रुढ़ लोक की व्यवस्था पहले कही गयी इस प्रकार है, जितने आकाश भाग में अन्य द्रव्य रहते हैं, उतना भाग लोक है ।
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परमात्मा वस्तुमात्र के हितस्वरूप कैसे ?
प्र०- परमात्मा असांव्यावहारिक जीव लोक के, मुक्त जीव लोक के, और आगे बढ़ कर पंचास्तिकाय में से अजीव द्रव्यों के हित स्वरुप कैसे ?
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उ०- परमात्मा जीवों का और पंचास्तिकाय समस्त का यथावस्थित दर्शन करते हुए सम्यक् निरुपण करने की क्रिया करते हैं इसलिए, और सम्यग्दर्शन द्वारा उपदिष्ट किये पदार्थो को भावीकाल में कोई बाधा नहीं पहुँचाते हैं इसलिए, उनके हितस्वरूप हैं । परमात्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होने से उन को समस्त वस्तुओं के स्वरूप का यथार्थ दर्शन है, यथास्थित प्रत्यक्ष ज्ञान है । इसीलिए वे वस्तु की सम्यक् प्ररुपण (उपदेश)) करते हैं। यदि दर्शन यथार्थ न होता, - तो निरुपण भी सम्यक् न होता और गलत निरुपण से श्रोताओं को श्रवण के बाद वस्तु की उलटी समझ कराते और वस्तु को अन्याय करते; - फलतः वे हितरूप नहीं बन सकते। हित का अर्थ यह है, कि इस जगत में जो पुरुष जिस वस्तु को, उसका स्वरूप न चूकते हुए यथार्थ स्वरूप में देखता है, और देखने के अनुरूप व्यवहार करता है यह व्यवहार भी आगामी अनर्थ को रोकनेवाला होता हो, वह पुरुष उस दर्शन के विषय
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