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( ल० - नाप्यभिधेयक्रमाभावः )
नैवमभिधेयमपि तथाऽक्रमवदसदिति; उक्तवदक्रमवत्त्वासिद्धेः क्रमाक्रमव्यवस्थाभ्युपगमाच्च ।
(पं०-) अभिधेयतथापरिणत्यपेक्षो ह्यभिधानव्यवहारः, ततः किं सिद्धमित्याह 'न' नैव, = एवम्' अभिधानन्यायेन 'अभिधेयमपि तथा अक्रमवदसद्' इति परोपन्यस्तं, कुत इत्याह 'उक्तवत्' प्रतिपादितनीत्या, 'अक्रमवत्त्वासिद्धेः अभिधानक्रमाक्षिप्तस्य क्रमवतोऽभिधेयस्य क्रमोत्क्रमादिना प्रकारेणामिधानार्हस्वभावपरिणतिमत्त्वात् सर्वथा क्रमरहितत्वासिद्धेः । एवमभिधेयपरिणतिमपेक्ष्याभिधानद्वारेण गुणानां क्रमाक्रमावुक्तौ, इदानीं स्वभावत एवामिधातुमाह 'क्रमाक्रमव्यवस्थाभ्युपगमाच्च' = क्रमेणाक्रमेण च सामान्येन हीनादिगुणानां गुणिनि जीवाद 'व्यवस्थायाः ' विशिष्टाया अवस्थाया स्वरूपलाभलक्षणाया 'अभ्युपगमात् ' = अङ्गीकरणात् स्याद्वादिभि:; चकारः पूर्व्वयुक्त्यपेक्षया समुच्चयार्थः । 'नाभिधेयमपि तथा क्रमवदसदि' ति योग: । पुण्डरीकोपमोपनीतात्यन्तातिशायिगुणसिद्धौ गन्धगजोपमया विहारगुणार्पणं पराभिप्रेतहीनादिगुणक्रमापेक्षयाऽक्रमवदपि नासदिति भावः ।
भी न बन सकता। लेकिन शब्दों की प्रवृत्ति तो होती हैं तो इनके अनुसार प्रतिपाद्य वस्तु में भी वैसा वैसा वाच्य स्वभाव मानना होगा। और वह उचित भी है क्योंकि वस्तु के हीनतर, हीन, अधिक, अधिकतर वगैरह गुण, परस्पर संबद्ध है, न कि मात्र एक ओर से संबद्ध; तो हीन के साथ अधिक गुण, और अधिक गुण के साथ हीन गुण संबद्ध होने से पहले चाहे हीन गुण की उपमा से या चाहे अधिक गुण की उपमा से वर्णन कर सकते हैं। यहां ऐसा मत समझना कि तब प्रतिपादन का कोई क्रम ही न रहा ! चूं कि क्रम तो है, किन्तु पूर्वानुपूर्वी, पश्चानुपूर्वी वगैरह अनेक प्रकारके क्रम होते हैं ।
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प्र०- आप कहते हैं 'शब्दो से जो कथन का व्यवहार होता है वह कथनीय वस्तु के वैसे वैसे परिणमन की अपेक्षा रखता है, ' तब तो यह आया कि कथन के दृष्टान्त से कथनीय भी क्रमरहित होगा अर्थात् जब कथन में उलटपुलटपन हो सकता है, तब वस्तु के गुण पर्यायों में भी उलटपुलटपन होगा, फलत: वे कथनीय गुण-पर्याय क्रम रहित हो जाने से असत् सिद्ध होंगे, क्यों कि 'अक्रमवद् असत्,' जो क्रम वाला नहीं, वह असत् होता है ।
उ०- ऐसा नहीं है, कारण कि पहले बताए अनुसार जब प्रतिपादन में पूर्वानुपूर्वी स्वरूप क्रम, पश्चानुपूर्वी स्वरूप उत्क्रम, और अनानुपूर्वी स्वरूप अक्रम होते हैं, तब इनकी वजह से प्रतिपाद्य में भी तादृश क्रमउत्क्रमादि वाले प्रतिपादन के योग्य स्वभावों की परिणति सिद्ध होती है। अतः प्रतिपाद्यभूत हीन गुण, अधिक गुण, वगैरह में रहने वाले वे वे प्रतिपाद्य स्वभाव विविध क्रम वाले सिद्ध होते ही हैं। तो अक्रम नहीं है, फिर असत् होने की बात ही कहां रही ?
अभिधेय वस्तु में भी क्रम अक्रम है:
अभिधान में अर्थात् कथन में क्रम बताया, अब अभिधेय में अर्थात् कथनीय विषय में क्रम बताते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि कथनीय विषय भी ऐसा क्रमरहित नहीं हैं कि जिससे वह क्रमशून्य होने के कारण असत् हो जावे । कारण यह है कि कथन - व्यवहार कथनीय विषय की भी उस उस प्रकार की परिणति की अपेक्षा रखता है । अर्थात् कथनीय विषय वैसे वैसे प्रतिपाद्य स्वरूप में परिणत बनें तभी उनके लिए वैसे वैसे शब्द उठतें हैं कि जिनमें प्रतिपादकता की परिणति हुई है ।
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