________________
(पं०-) अमुमेवार्थमनेनैवोपन्यासेन व्यतिरेकतः साधयितुमाह 'अन्यथा' = क्रमाक्रमव्यवस्थायाः पूर्वानुपूर्व्याद्यभिधेयस्वभावस्य चाभावे, 'न' = नैव, 'शब्दप्रवृत्तिः' = प्रस्तुतोपमोपन्यासरूपा, 'वस्तुनिबन्धना' वाच्यगुणनिमित्ता, हीनादिक्रमेणैव हि गुणजन्मनियमे पूर्वानुपूळ्यवाभिधेयस्वभावत्वे च सति तन्निबन्धने च तथैव शब्दव्यवहारे कथमिव शब्दप्रवृत्तिरित्थं युज्यत इति भावः । इति' = अस्माद्धेतोर्वस्तुनिबन्धनशब्दप्रवृत्त्यभावलक्षणात् 'स्तववैयर्थ्यमेव"स्तवस्य' अधिकृतस्यैव वैयर्थ्यमेव' = निष्फलत्वमेव, असदर्थाभिधायितयास्तवधर्मातिकमेण स्तवकार्याकरणात् (प्रत्यन्तरे....कार्यकरणात्) । 'ततश्च' = स्तववैयर्थ्याच्च, 'अन्धकारनृत्तानुकारी' = सन्तमसविहितनतनसदृशः, 'प्रयासः' = स्तवलक्षण इति; न चैवमसौ, सफलारम्भिमहापुरषप्रणीतत्वादस्य; इति पुण्डरीकोपमेयकेवलज्ञानादिसिद्धौ गन्धगजोपमेयविहारगुणसिद्धिरदुष्टेति।
'एकान्तेने' त्यादि, 'एकान्तेन' = अव्यभिचारेण, 'आदिमध्यावसानेषु', 'आदौ' = अनादौ भवे (प्र० भवेषु) पुरुषोत्तमतया, 'मध्ये' = व्रतविधौ सिंहगन्धहस्तिधर्मभाक्त्वेन, अवसाने' च = मोक्षे पुण्डरीकोपमतया 'स्तोतव्यसम्पत्सिद्धिः' = स्तवनीयस्वभावसिद्धिरिति ।
इसी वस्तु को इसी उपन्यास में निषेधमुख से भी सिद्ध करने के लिये ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं कि 'अन्यथा' अर्थात् यदि वस्तु में शब्दानुसार परिणति न मानी जाय तो सम्यक् शब्दप्रयोग वस्तुसापेक्ष ही हो ऐसा नियम नहीं रहेगा । वस्तु स्वयं अमुक रूप में होगी और उसके प्रतिपादक शब्द किसी भी ढंगका हो सकेगा। तात्पर्य क्रम, अक्रम दोनों की विशिष्ट अवस्था का, यानी पूर्वानुपूर्वी आदि अनेक स्वभावों का, यदि कथनीय वस्तु में अभाव ही होता, तब तो कहना होगा कि अक्रम से उपमा के उपन्यास करनेवाला वचनप्रयोग यों ही हुआ किन्तु तादृश वाच्य गुणवस्तु के आधार पर नहीं हुआ ! और गुणों की उत्पत्ति में पहले हीन, बाद में अधिक, अधिकतर... इत्यादि क्रम हि हो, यानी वस्तु-परिणति मात्र एक ही पूर्वानुपूर्वी क्रम वाली ही होती हो, एवं शब्दप्रयोग भी उसके सापेक्ष ही हो सकता हो, तो यह बतलाइए कि पूर्वानुपूर्वी रूप क्रम को छोडकर इस प्रकार अक्रम से गुणस्तुति हुइ कैसे? महर्षियों ने ऐसा अक्रमवाला स्तुति-प्रयोग किया तो है; वह यदि किसी सद्वस्तु को सापेक्ष न माना जाए तो तादृश स्तुतिप्रयास अर्थशून्य सिद्ध होगा। क्यों कि स्तुति में जैसा कथन करते हैं उसके मुताबिक कोइ सद्वस्तु तो है नहीं, तो स्तवप्रयोग असद् अर्थ-विषयक हुआ। फलतः स्तुति-धर्म का उल्लंघन होने से स्तुति का कार्य नही हुआ; क्यों कि स्तुति का धर्म तो यथार्थता है; वास्तविक स्तुति वही होती है जो यथार्थ हो, सत्योक्ति हो । लेकिन स्तुति का यह धर्म यहाँ, यदि स्तुति असत् अर्थ की कहने वाली है, तब खण्डित होता है; और इसी से स्तुति का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है। प्रयोजन यही था कि अर्हन् प्रभु के ऐसे ऐसे वास्तविक गुणों का कीर्तनस्मरणादि करना। लेकिन अक्रमवाले गुण सत् न हो तो यह प्रयोजन कहां रहा? परिणामतः जैसे अन्धकार में नृत्य किसी को न दिखने से आनन्द रूप फल को पैदा नहीं कर सकता है, अतः निरर्थक यत्न है; इसी प्रकार निष्प्रयोजन स्तुति का यत्न यहां निरर्थक यत्न हुआ। लेकिन महर्षि में ऐसे निरर्थक यत्न की संभावना नहीं की जा सकती हैं। वे तो महाज्ञानी होने के कारण सफल ही प्रयत्न करनेवाले होते हैं। इनके द्वारा किया गया इस स्तुतिरचना का प्रयत्न सार्थक ही हैं। तब निष्कर्ष यह आया कि प्रभु में पुण्डरीक की उपमा से वर्णनीय केवलज्ञानादि गुणों की सिद्धि पहले दिखला कर बाद में गन्धहस्ति की उपमा से वर्णनीय विहारगुण की सिद्धि दिखलाना निर्दोष है।
तृतीयसम्पदाका उपसंहार : पुरुषोत्तमतादि चार कब होते हैं ?
१००
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org