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(ल.)- यथाभव्यं व्यापकश्चानुग्रहविधिः उपकार्यात् प्रत्युपकारलिप्साऽभावेन महतां प्रवर्तनात् । महापुरुषप्रणीतश्चाधिकृतदण्डकः आदिमुनिभिरर्हच्छिष्यैर्गणधरैः प्रणीतत्वात् । अत एवैष महागम्भीरः, सकलन्यायाकरो, भव्यप्रमोदहेतुः, परमार्षरू पो, निदर्शनमन्येषाम्, इति न्याय्यमेतद् यदुत 'पुरुषसिंहा' इति ।
__ (पं०)-यदि नाम हीनोपमयापि सिंहादिरूपया कस्यचिद् भगवद्गुणप्रतिपत्तिर्भवति तथापि सा न सुन्दरेति (अतः) आह 'यथाभव्यं' =यो यथाभव्योऽनुग्रहीतुं योग्यो यथाभव्यं योग्यतानुसारः, तेन, 'व्यापकश्च' =सर्वानुयायी पुनः, 'अनुग्रहविधिः' =उपकारकरणम् । अत्र हेतुः 'उपकार्याद्' =उपक्रियमाणात्, 'प्रत्युपकारलिप्साऽभावेन' =उपकार्यं प्रतीत्योपकर्तुरनुग्रहकरणं प्रत्युपकारः, तत्र 'लिप्साऽभावेन' =अभिलाषनिवृत्त्या, 'महतां' =सतां 'प्रवर्त्तनात्' । अत इत्थमेव केचिदनुगृह्यन्ते, इत्येवमप्युपमाप्रवृत्तिरदुष्टेति । 'परमार्षरू प' इति, 'परमं' =प्रमाणभूतं, यद् 'आर्ष'-ऋषिप्रणीतं, तद्रूपः । 'इति' =इत्येवं 'पुरुषसिंहा' इत्येतदुपमानं 'न्याय्यं' =युक्तियुक्तम् ।
___ यहां यह देखिए कि परमात्मा बनने के लिए भी अरिहंत की आत्मा मन-वचन-कायासे कितनी वैराग्य-अहिंसा-संयम-तप आदि की कड़ी साधना करती है ! कितने इन्द्रियनिग्रह, कष्टसहन, और उच्च गुण रखती हैं ! कितनी ध्यानमग्न रहती हैं ! तभी तो वह वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा यानी परम शुद्ध आत्मा होती है, एवं विश्व को तत्त्व दर्शन करा कर मोक्ष मार्ग पर ले चलती है और अन्तमें अनंत दुःखमय संसार से छुडाती हैं। असली परमात्मपन ऐसे प्रभु में है, न कि सराग में, या जगत्सर्जक में । विश्व के प्रति लोकोत्तर उपकार भी वे कर सकते हैं । मुमुक्षु को आदर्शभूत भी ऐसे परमात्मा हो सकते हैं। सच्चे तत्त्व और संपूर्ण सत्य ऐसे परमात्मा ही दिखला सकते हैं।
अब न्यून या अधिक के साथ उपमा का अस्वीकार करनेवाले सांकृत्य मत में अप्राणिकता के प्रदर्शनार्थ ही ग्रन्थकार महर्षि कहते हैं कि अरिहंत परमात्मा को पूर्वोक्त शौर्यादिरुप से दी गई सिंह के साथ उपमा यानी सादृश्य असत्य है ही नहीं; क्यों कि सिंह की उपमा द्वारा मात्र शब्द व्यवहार से नहीं अर्थात् केवल कहने के लिए नहीं, किन्तु वस्तुस्थिति के अनुरोध से भगवान जिनेन्द्रदेव के असाधारण गुणों का बोध कराया गया हैं। सिंह आदि दूसरे किसी में भी न रहने वाले विशिष्ट शौर्यादि गुण उन में दिखलाए गए हैं। अर्हत् भगवान में वैसे गुण वस्तुतः हैं यह उपमानिवेश का तात्पर्य है।
प्र०- प्रभु में उन असाधारण गुण प्रदर्शित करने हेतु और उपाय या उपमा भी तो हो सकती है, फिर ऐसी उपमा के दर्शक सूत्र क्यों दिया ?
उ०- तथाप्रकार के शिष्यों के प्रति अनुग्रह करने के लिए यह 'पुरिससीहाणं' सूत्र दिया गया है। कारण कि कितनेक ऐसे शिष्य जनों को, प्रस्तुत सिंह की उपमा दिखलाने से ही, पूर्वोक्त शौर्यादि असाधारण गुणों का बोध हो सकता है। शायद आप पूछेगे, क्यों ऐसा? उत्तर यह है कि बोध में कारणभूत जो क्षयोपशम है वह जीव में विचित्र प्रकार का होता है; अर्थात् जीवों के ज्ञानावरण आदि कर्मो का हास भिन्न भिन्न प्रकार का होता हैं। और इसीलिए किसी शिष्य को प्रस्तुत उपमा-कथन के प्रकार से ही क्षयोपशम द्वारा आशय-शुद्धि यानी परमात्मा के प्रति चित्तआल्हाद उत्पन्न होता है। तात्पर्य, अमुक प्रकार के क्षयोपशम के सहकार द्वारा इस रीति की ही उपमा का निर्देश भावोल्लास को प्रगट कर सकता है; अतः शुभ भाव की प्रवर्तक ऐसी आत्मा असत्य नही है, परमार्थ
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