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परमात्मा का प्रभाव :
परमात्मा को यहां सम्यग्दर्शन आदि आनन्द में हेतुभूत बताया गया हैं। इस कथन पर से यह समझना आवश्यक है कि अर्हत् परमात्मा विश्व के निर्माण इत्यादि कर्तृत्व की किसी झंझट में न पडते हुए भी, और स्वयं कृतकृत्य होने के कारण कुछ भी अपना कर्तव्य अवशिष्ट न रहने पर भी, वे भव्य जीवों के सम्यग्दर्शनादि में कारणभूत हैं, यह केवल उपचार रूप से भी नहीं बल्कि, मुख्य रूपसे । 'श्री पञ्चसूत्र' नामक महाशास्त्र में 'अचिन्तसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो परमतिलोगनाहा' अर्थात् वे परम त्रिलोकनाथ अर्हत् परमात्मा अचिन्त्य सामर्थ्य युक्त हैं, - यह कह कर प्रार्थना की गई है 'मूढे अम्हि पावे अणाइमोहवासिए अणभिन्ने भावओ अभिन्ने सिआ' अर्थात् 'हम संसारी जीव पापी हैं अनादिमोह से वासित हैं, और परमार्थतः अनभिज्ञ हैं अबुद्ध हैं, अज्ञान हैं; लेकिन अरिहंत परमात्माकी अचिन्त्य सामर्थ्य से, चाहते हैं हम अभिज्ञ हों, सुबुद्ध हों।' क्या यह वचन
औपचारिक है ? अर्थात् क्या परमात्मा में ऐसी कोई शक्ति नहीं ऐसा कोई प्रभाव नहीं कि जिस से अभिज्ञता मिले ? सुबुद्धता मिले? क्या सिर्फ कहने के लिए यह स्तुति की गई है? नहीं, स्तुति वास्तविक है परमात्मा की ऐसी सामर्थ्य अवश्य है। इस ग्रन्थ में भी आगे 'चतुर्विंशति स्तव' सूत्र में 'चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु' - इस वचन की व्याख्या में ललितविस्तराकार सिद्ध करेंगे कि २४ अर्हत् परमात्माओं के प्रसाद की की गई स्तुति वास्तविक हैं, पारमार्थिक है, प्रधानरुप से है; इसलिए महर्षियों के ऐसे वचन असत्य भाषण नहीं हैं। सम्यग्दर्शनादि तो क्या, प्राथमिक मार्गाभिमुख आदि शुभ भाव भी परमात्मा के प्रभाव से ही प्रगट होते हैं । परमात्मा में सचमुच ऐसा प्रभाव ऐसी सामर्थ्य न मानने वाले को पारमार्थिक शुभ भाव होता भी नहीं है। इसलिए यह भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिए कि 'अरिहंत परमात्मा तो वीतराग हैं, अकर्ता हैं, अतः उनका कुछ प्रभाव नहीं, ये तो सिर्फ तत्त्वों और मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं; हमें जो कुछ आत्मविकास करना है, वह अपने ही पुरुषार्थ के बल पर करना होगा; इस को कर सकने में उपकार अपने पुरुषार्थ का है परमात्मा का कोई उपकार नहीं; परमात्मा का उपकार तो केवल तत्त्वोपदेश एवं मार्गोपदेश का ही है'-इस प्रकार की भ्रान्ति नहीं रखनी चाहिए । यह सचमुच मानना चाहिए कि हमें अरिहंत प्रभु का उपदेश मिलने के बाद भी अपने में जो शुभ भाव, जो सम्यग्दर्शनादि, और जो पुण्यानुबंधी पुण्य आदि प्राप्त हो सकेंगे, वे जगत्दयालु अरिहंत परमात्मा के प्रभाव से ही, उन्हीं की सामर्थ्य से ही, नहीं कि अपने पुरुषार्थ के बल से। अलबत्ता पुरुषार्थ तो करना ही होगा, लेकिन उपकार परमात्मा का ही मानना रहेगा।' इसलिए हमें सतत प्रार्थना करते रहना चाहिए कि 'प्रभु ! मेरा जो कुछ शुभ होगा वह आप के प्रभाव से' । हमें सतत ध्यान में रखना होगा कि-'अरिहंत प्रभु की महिमा से ही मेरा सब कुछ शुभ होता है । यह प्रामाणिक ख्याल रखने पर ही परमात्मा के प्रति कृतज्ञभाव जो कि विकास का मूल है वह बना रहेगा, आत्मा का उत्थान हो सकेगा, अरिहंत परमात्मा पर छलकती भक्ति-प्रीति जाग्रत रहेगी, और अपने सुकृतों में प्राण आएगा। इसी सूत्र में 'अभयदयाणं, चक्खुदयाणं.....' इत्यादि पदों में ललितविस्तराकार यही बतलायेंगे कि परमात्मा ठीक ही अभय, चक्षु, वगैरह के दाता हैं। अगर वीतराग अरिहंत देव की कुछ भी सामर्थ्य न हो, तो वे दाता कैसे ? वस्तुस्थिति यह है कि श्री अरिहंत परमात्मा को हृदय से सर्व शुभ के दाता मानने पर, अर्थात् समस्त शुभ जो प्राप्त हुए हैं और प्राप्त होंगे, वे उन्हीं के प्रभाव से, उन्हीं की कृपासे - यह आन्तर नाद पूर्वक स्वीकार करने पर आत्मा परमात्मा के प्रति कृतज्ञभाव, उपकृतभाव, स्निग्धभाव आदि से भर जाती है; और तभी प्रभुदर्शन स्मरण-पूजन, एवं दान-शील-तप-भावना वगैरह के सभी धर्मानुष्ठान स्निग्ध रुप से तथा वेगवंत
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