________________
और साथ साथ इन के प्रतिपक्षभूत अमूर्तत्व-चेतनत्वादि के अभाव की आपत्ति ! यह ध्यान रहे कि इन आपत्तियों को इष्टापत्ति नहीं कर सकेंगे, क्यों कि इस में लोकव्यहावर का बाध हो जाएगा। सारांश, वस्तु में सत्त्व, अमूर्तत्व आदि धर्म एकरूप नहीं किन्तु भिन्न भिन्न हैं, अतः वस्तु अनेक स्वभाव सिद्ध होती है।
प्र०—ठीक है तब अमूर्तत्वादि धर्मो को शुद्ध सत्त्व रूप न माना जाए लेकिन विशिष्ट सत्त्व रूप मान लें तो क्या आपत्ति है ? जीव में तो विशिष्ट सत्ता है तो तत्स्वरूप अमूर्तत्वादि सिद्ध होते हैं; किन्तु घड़ा आदि अजीव में ऐसी विशिष्ट सत्ता नहीं है, तब फिर उनमें अमूर्तत्व-चेतनत्वादि की आपत्ति नहीं हो सकती हैं।
उ०—यह बौद्धों का मत है कि "जीव में जो विशिष्ट सत्ता हैं वह स्वपरपक्षव्यावृत्त हैं; अर्थात् एक जीव की अपेक्षा दूसरे जीव स्वरूप जो स्वपक्ष, और घड़ा आदिस्वरूप जो परपक्ष, इन, अन्य जीव और घड़ा आदि, दोनों से व्यावृत्त है (असंबद्ध है) विशिष्ट सत्ता; वह सिर्फ जीव मात्र में होती है, दूसरों में नहीं; और वही अमूर्तत्वादि है।" लेकिन यह मत प्रामाणिक नहीं है, क्यों कि अमूर्तत्वादि अविशिष्ट यानी शुद्ध सत्त्व स्वरूप तो नहीं, बल्कि ऐसे विशिष्ट सत्त्व स्वरूप भी नहीं हो सकते हैं। हम पूछते हैं कि सत्ता को विशिष्ट कहते हैं, तो किस विशेषण से विशिष्ट, यह कहिए । सत्ता के साथ ऐसा कौन सा खास भेदक धर्म है जो इस सत्ता को दूसरी सत्ताओं से भिन्न करता है ? विना कोई भिन्न करनेवाला विशेषण, यों ही सत्ता को विशिष्ट सत्ता कहेंगे तो अतिव्याप्ति होगी, अजीव में भी ऐसी सत्ता की आपत्ति होगी। क्यों कि जब भेद करनेवाला विशेषणीभूत धर्म ही नहीं है, तब तो यह आया कि विशिष्ट सत्ता शुद्ध सत्त्व रूप ही है और जीव में कोई भेदक धर्म न होते हुए भी वह सत्ता चेतनत्वादि स्वरूप है, तब तो अजीव में भी ऐसा सत्त्व होने के नाते चेतनत्व आदि की आपत्ति क्यों नहीं? ।
___ इसलिए मानना होगा कि सत्त्व ही अमूर्तत्व-चेतनत्वादि धर्म नहीं है। किन्तु जैसे सत्त्व भिन्न धर्म है, ऐसे अमूर्तत्व भी भिन्न धर्म है, चेतनत्व भी भिन्न धर्म है...... इत्यादि । और वस्तु में ये धर्म कथंचित् अभिन्न भाव से रहते हैं; अतः वस्तु इनसे अनेकधर्मात्मक है, अनेकस्वभाव हैं; इसके स्थान में वस्तु यदि एकस्वभाव ही मानेंगे तो अनेक दोषों का आपात होगा। और जब वस्तु अनेकस्वभाव यानी विचित्रस्वभाव सिद्ध हुई, तब विजातीय उपमा लगाने में कोई विरोध नहीं है। ऐसा नहीं कि ऐसी उपमा की वजह प्राप्त धर्मो का परस्पर खंडन होगा अर्थात् अर्हत् परमात्मा को एकेन्द्रिय पुण्डरीक समान कहते हैं तो परमात्मा में एकेन्द्रियपन आ जाने से पञ्चेन्द्रियपन का खण्डन होगा । ऐसा नहीं है। क्यों कि पुण्डरीक वस्तु में अनेकस्वभाव होने से इसमें जो नैसर्गिक सौन्दर्य, आल्हादकता वगैरह भिन्न भिन्न धर्म हैं इनके सदृश धर्म ही अर्हत्प्रभु में सिद्ध है, और एकेन्द्रियता आदि जो अलग धर्म हैं उनके समान धर्म प्रभु में नहीं ही हैं; तब पञ्चेन्द्रियता आदि का खण्डन कहां से होगा?
विरोध कहां होता है ? -- हां, कहीं भी उपमा लगाने में विरोध नहीं आता है ऐसा नहीं है; एक ही निमित्तवाली भिन्न उपमाओं में विरोध अवश्य आता है। अर्थात् यदि जिसके साथ उपमा लगानी है ऐसी उपमेय वस्तु में किसी एक ही धर्म उपमा का निमित्त बनाया जाए और उस पर सजातीय और विजातीय दोनों तरह की उपमाएँ लगाई जाएँ, तो विरोध होगा। उदाहरणार्थ, एक ही सत्त्व धर्म को ले कर कहा जाए कि परमात्मा जीव सदृश हैं एवं पुण्डरीक सदृश हैं तो विरोध होगा। लेकिन भिन्न भिन्न धर्मो को निमित्त बनाकर भिन्न भिन्न अनेक उपमाएँ लगाई जाएँ तो कोई विरोध नहीं हो सकता । जैसे कि, शौर्य धर्म से परमात्मा सिंह समान हैं, और आल्हादकत्व धर्म से वे पुण्डरीक समान हैं । वे धर्म पृथक् पृथक् होने से कोई विरोध या अनिष्ट आपत्ति लग सकती नहीं है।
इस प्रकार परमात्माको पुरुषवरपुण्डरीक कह कर स्तुति करने में, उपमा सदृश एवं विसदृश दोनों प्रकार से मिलती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org