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७. पुरिससीहाणं (पुरुषसिंहेभ्यः) (साङ्कृत्यमत-तन्निरासौ-)
(ल०)-एतेऽपि बाह्यार्थसंवादिसत्यवादिभिः साङ्कृत्यैरुपमावतथ्येन निरुपमस्तवार्हा एवेष्यन्ते, 'हीनाधिकाभ्यामुपमामृषे 'ति वचनात् । एतद्व्यवच्छेदार्थमाह 'पुरुषसिंहेभ्यः' (पुरिससीहाणं) इति । पुरुषाः प्राग्व्यावर्णितनिरुक्ताः, ते सिंहा इव प्रधानशौर्यादिगुणभावेन ख्याताः पुरुषसिंहाः । ख्याताश्च कर्मशत्रून प्रति शूरतया, तदुच्छेदनं प्रति क्रौर्येण, क्रोधादीन् प्रति त्वसहनतया, रागादीन् प्रति वीर्ययोगेन, तपःकर्म प्रति वीरतया।अवज्ञैषां परीषहेषु, न भयमुपसर्गेषु, न चिन्तापीन्द्रियवर्गे, न खेदः संयमाध्वनि, निष्प्रकम्पता सद्ध्यान इति ।
__(पं०)- 'बाह्ये' इत्यादि । सम्यक्शुभभावप्रवर्तकमितरनिवर्त्तकं च वचनं सत्यमसत्यं वा निश्चयतः सत्यं, तत्प्रतिषेधेन ‘बाह्यार्थसंवाद्येव' =अभिधेयार्थाव्यभिचार्येव, 'सत्यवादिभिः' =व्यवहाररूपं सत्यं वक्तव्यमिति वदितुं शीलं येषां ते तथा, तैः । ‘साङ्कृत्यैः' सङ्कृताभिधानप्रवादिशिष्यैः, 'उपमावैतथ्येन' =सिंहपुण्डरीकादिसादृश्यालीकत्वेन, निरुपमस्तवार्हाः एव' =सर्वासादृश्येन वर्णनयोग्या:, 'इष्यन्ते' । कुत इत्याह 'हीनाधिकाभ्यां', 'हीनेन' =उपमेयार्थान्नीचेन, 'अधिकेन च' =उत्कृष्टेन, उपमेयार्थादेव; 'उपमा' =सादृश्यं, 'मृषा' =असत्या, 'इतिवचनात्' =एवंप्रकाराऽऽगमात् ।
७. पुरिससीहाणं 'उपमारहित स्तुति'वादी सांकृत्य मत:
ऐसे श्री पुरुषोत्तम परमात्मा उपमासहित नहीं किन्तु उपमारहित सत्य स्तुति के योग्य हैं - इस प्रकार सङ्कृत नामके वादी के शिष्य साङ्कृत्य मानते हैं। दरअसल सत्य वही है जो सम्यक् शुभ भावका प्रवर्तक हो एवं असम्यग् अशुभ भाव का निवारक हो, चाहे वह सत्य हो या असत्य, लेकिन पारमार्थिक सत्य वही है। परन्तु इसके निषेध में सांकृत्यलोग बाह्य अर्थ के साथ संवादी यानी मिलते-जुलते वचन को ही सत्य वचन मानते हैं। वे कहते हैं कि वचन में सत्यता हो उसके लिए बाह्य वस्तुके साथ संवादिता यानी यथार्थता आवश्यक है। वचन अभिधेय अर्थका अव्यभिचारी होना चाहिए, मतलब जैसी बाह्य वस्तु वैसा ही वह कहने वाला चाहीए; अर्थात् वचन व्यवहार से सत्य होना चाहिए। ऐसा ही सत्य बोलना इस प्रकार मानने वाले सांकृत्य लोग चाहते हैं कि सिंह, पुण्डरीक आदि की उपमा यानी सादृश्य झुठा है, परमात्मा में अविद्यमान है; इसी लिए वे विना किसी भी उपमा, स्तुति योग्य है। स्तुति में उपमा नहीं दिखलानी चाहिए, कारण जब उन में वैसा सादृश्य है ही नहीं, तब वह क्यों बोलना? अगर जो बोलेंगे तो वह मषाभाषण होगा। सांकत्य का आगमवचन यह है-'हीनाधिकाभ्याम उपमा मृषा' न्यून या अधिक के साथ उपमा दिखलाना यह मृषा है, असत्य है। जिसे उपमा लगानी है वह हुआ उपमेय; पदार्थकी अपेक्षा उत्कृष्टता में नीचे या ऊंचे पदार्थके साथ सादृश्य कहना यह असत्य वचन है।
साङ्कृत्य मतका खण्डन : परमात्मा सिंह समान हैं :
इस साम्यता के खिलाफ यहां अर्हत् परमात्मा को 'पुरुषसिंह' कह कर नमस्कार करते हैं । अर्थात् वे पुरुष सिंह समान हैं। 'पुरुष' शब्दके अर्थ का वर्णन कर आये इस प्रकार अर्थ 'पुर' माने शरीरमें रहनेवाला जीव होता है। ऐसे वे परमपुरुष सिंह समान इसीलिए विख्यात है कि उन में सिंह के समान प्रधान शौर्य आदि,-अर्थात्
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