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(ल० - उच्यते, यत्किञ्चिदेतत्, तत्तत्त्वापरिज्ञानात् । भावनमस्कारस्यापि उत्कर्षादिभेदोऽस्त्येवेति तत्त्वम् । एवं च भावनमस्कारवतोऽपि तथा तथा उत्कर्षादिभावेनास्य तत्साधनाऽयोगोऽसिद्धः, तदुत्कर्षस्य साध्यत्वेन तत्साधनोपपत्तेरिति । एवं च, एवमपि पाठे मृषावादः' इत्याद्यपार्थकमेव, असिद्धे तत्प्रार्थनावच' इति न्यायोपपत्तेः।
(पं०) - ‘भावनमस्कारस्यापी'ति, किं पुनर्नामादिनमस्कारस्य इति 'अपि' शब्दार्थः । 'तत्साधनोपपत्तेरि'ति, 'तस्य' = उत्कर्षानन्यरूपस्य नमस्कारस्य प्रार्थनया साधनस्य, 'उपपत्तेः' = घटनात् । कोई असङ्गत नहीं। अर्थात् अधिकाधिक भावनमस्कार सिद्ध करनेके लिए प्रार्थना करना यह उपपन्न है, युक्तियुक्त है। एवमेव प्रार्थनाका सूचक 'नमस्कार हो' यह पाठ पढना भी युक्तियुक्त है। इसमें कोई असत्कथन नहीं है। इसलिए यह आक्षेप, कि भावनमस्कार सिद्ध होने पर भी ऐसा पाठ पढना मृषाभाषण होगा इत्यादि अर्थशून्य है। क्यों कि वह सिद्ध है ही नहीं । उत्तरोत्तर अधिकरूपसे नमस्कार तो अब तक असिद्ध है और असिद्ध के लिए प्रार्थना वचन हो सकता है। चारों प्रकारके नमस्कारमें न्यूनाधिकता:
यहाँ देखिए कि नमस्कार चार प्रकारके होते है:- १. नाम नमस्कार (केवल नमस्कार शब्द), २. स्थापना नमस्कार (नमस्कार करते हुए पुरुषका चित्र अथवा मूर्तिकी स्थापना इत्यादि), ३. द्रव्यनमस्कार (हृदयमें नमस्कारकी भावनाशून्य या नमस्कारक्रियामें मन लगाये बिना की जाती नमस्कारक्रिया), और ४. भावनमस्कार (नमस्कार के विशिष्ट शुभ अध्यवसायसे युक्त नमस्कार) । प्रत्येक नमस्कारमें कई प्रकारके न्यूनाधिक भेद होते है ; जैसे कि नामनमस्कारमें नमस्कार शब्दका शुद्ध शुद्धतर उच्चारण; स्थापनामें विशिष्टविशिष्टतर नमस्कार-चित्र आदि स्थापना; द्रव्यनमस्कारमें पूर्वोक्तानुसार अधिकाधिक व्यवस्थित ढंगसे सिर-पैरदृष्टि आदिको स्थापित कर की जाती नमस्कार-क्रिया; और भावनमस्कारमें मनकी विशिष्ट-विशिष्टतर शुद्धि एवं स्थैर्य, और हार्दिक अधिकाधिक संवेग वैराग्य आदि भावोल्लास, विरति, उपशम, वगैरह । इनमेंसे जितना शुद्ध नमस्कार सिद्ध हुआ उसके लिए तो अब कोई प्रार्थना करनेकी जरुरत नहीं, किन्तु अब तक जो जो उच्चतर भावनमस्कार सिद्ध नहीं कर सके हैं उनके लिए तो प्रार्थना करना बिलकुल आवश्यक एवं युक्तिसङ्गत ही है। .
हां, श्रेष्ठतम शुद्धि और स्थैर्यवाला सर्वोत्कृष्ट भावनमस्कार सिर्फ वीतराग आत्माओंको ही सिद्ध हुआ है, अतः उन्हें अब प्रार्थना करनेकी कोई जरुरत नहीं, क्योंकि उन्हें अब नया कुछ सिद्ध करना है ही नहीं और ऐसे वीतराग जीव प्रार्थनासूचक वह 'नमस्कार हो' पाठ पढते भी नहीं है।
प्र० - वीतराग भी 'नमस्तीर्थाय' यह पाठ तो पढते हैं न? वीतराग क्यों पढे? वे तो जीवन्मुक्त हो गये।
उ०- ठीक है, लेकिन वे निराशंस भावसे अर्थात् किसी कामनाके बिना मात्र अपने कल्प याने आचाररूपसे पढते है। उन्हें न तो इससे कुछ सिद्ध करना है, न उसके फलकी कोई कामना है। इस प्रकार वीतरागके अलावा भावनमस्कारकी पराकाष्ठावाला कोई नहीं है। यहां द्रव्यपूजा, भावपूजा, इन दोनोंमें भावपूजा प्रधान है, इसलिए नमस्कारके विचारमें भावपूजा और उसके अधिकारी वीतराग प्रस्तुत किये गये। क्योंकि 'नमः' पदसे लभ्य नमस्कारका अर्थ पूजा ही है, तथा पूजा द्रव्यसङ्कोच और भावसङ्कोच उभयस्वरूप है यह पहले कह दिया गया है।
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