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( ल - पूजाचतुष्टयः-) तत्प्रर्कषवांस्तु वीतरागो नैवैवं पठतीति न चान्यस्तत्प्रकर्षवान्, भावपूजायाः प्रधानत्वात्, तस्याश्च प्रतिपत्तिरूपत्वात् । उक्तं चान्यैरपि- 'पुष्पाऽऽमिषस्तोत्र-प्रतिपत्तिपूजानां यथोत्तरं प्राधान्यम्' । प्रतिपत्तिश्च वीतरागे, पूजार्थं च नम इति । पूजा च द्रव्यभावसंकोच इत्युक्तम् । अतः स्थितमेतदनवा 'नमोऽस्त्वर्हद्भ्य' इति ।
___ (पं०) - 'नैवैवं पठती'ति, एवमिति प्रार्थनम्, 'नमस्तीर्थाये'ति निराशंसमेव तेन पठनात् । 'पुष्पामिषस्तोत्रप्रतिपत्तिपूजानामि त्यादि, तत्र ‘आमिष' शब्देन मांस-भोज्यवस्तु-रुचिर-वर्णादिलाभ-संचयलाभरुचिररूपादि-शब्द-नृत्यादिकामगुण-भोजनादयोऽर्थाः यथासम्भवं प्रकृतभावे योज्यां । देशविरतौ चतुर्विधाऽपि, सरागसर्वविरतौ तु स्तोत्रप्रतिपत्ती द्वे पूजे समुचिते । भवतु नामैवं यथोत्तरं पूजानां प्राधान्यं तथापि वीतरागे का सम्भवतीत्याह 'प्रतिपत्तिश्च वीतरागे' इति; = 'प्रतिपत्तिः' अविकलाप्तोपदेशपालना, 'चः' समुच्चये, 'वीतरागे' = उपशान्तमोहादौ पूजाकारके । यदि नामैवं पूजाक्रमो, वीतरागे च तत्सम्भवः, तथापि नमस्कारविचारे तदुपन्यासोऽयुक्त इत्याह 'पूजार्थ चे'त्यादि । प्रतिपत्तिरपि द्रव्यभावसंकोच एवेतिभावः ।
पूजाके चार प्रकार - प्र०- वीतरागको किस प्रकारकी भावपूजा होती है ?
उ०- वह भावपूजा प्रतिपत्तिरूप होती है। अन्योंने भी कहा है कि 'पुष्पामिषस्तोत्रप्रतिपत्तिपूजानां यथोत्तरं प्राधान्यम्' - अर्थात् पूजाके चार प्रकार होते हैं,: - पुष्प, आमिष (नैवेद्यादि), स्तोत्र, और प्रतिपत्तिः जो क्रमशः उत्तरोत्तर प्रधान होती हैं। पुष्पपूजाकी अपेक्षा आमिषपूजा प्रधान है ; उससे स्तोत्रपूजा प्रधान होती है ; एवं स्तोत्रपूजाकी अपेक्षा प्रतिपत्तिपूजा प्रधान है। यहाँ 'पुष्प, आमिष....' इत्यादिमें जो 'आमिष' शब्द लिया उसके कई अर्थ होते है, जैसे कि मांस, भोग्य वस्तु, रोचक वर्ण आदिका लाभ, सञ्चयका लाभ, रोचक रूपादि,- रोचक शब्द, नृत्य आदि इन्द्रियविषय, भोजन इत्यादि । लेकिन प्रकृतमें यथासम्भव अर्थोकी योजना करनी जरुरी है। 'यथा सम्भव' इसीलिए कहा, कि यह पूजा श्री वीतराग सर्वज्ञके शासनद्वारा साधककी भूमिकानुसार विहित की गई है; अतः मांसादि अभक्ष्य-असेव्यके उपहारसे पूजा नहीं हो सकती, वास्ते शेष साधनोंसे आमिषपूजा करनी योग्य है।
गृहस्थ और मुनिके लिए पूजाका विभाग :प्र० - जैनदर्शनमें क्या सबके लिए इस चतुर्विध पूजाका विधान है ? .
उ० – नहीं, जो देशविरति अर्थात् अहिंसादिके अणुव्रतधारी गृहस्थ है उसके लिए तो चारों प्रकारकी पूजाएँ उचित है; और सराग सर्वविरतिधर साधुके लिए मात्र स्तोत्र पूजा, और प्रतिपत्ति पूजा ही उचित है। कारण यह है कि पुष्प एवं आमिष द्रव्य हैं, और गृहस्थ द्रव्यके आधिपत्यमें बैठे हैं, अत: वे द्रव्यपूजा के अधिकारी हैं, लेकिन साधु सर्व सङ्गों के त्यागी होने की वजहसे द्रव्यके अधिकारी नहीं हैं, अत: वे द्रव्यपूजाके अधिकारी नहीं हो सकते।
प्र०- तब साधुओंको तो उतना लाभ कम मिलेगा न ?
उ०- उसमें कम लाभकी बात ही नहीं हैं ; क्योंकि द्रव्यपूजा भी भावपूजाके ही लाभार्थ करनी है, और द्रव्यपूजाकी अपेक्षा भावपूजा उत्कृष्ट होनेसे उच्चत्तम फल भी प्रदान करती है; तब साधु के लिए कम लाभकी
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