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(ल०- प्रातिभज्ञान:-)
आह 'अयं प्रातिभज्ञानसङ्गत इत्युक्तं, तत् किमिदं प्रातिभं नाम ? असदेतत्, मत्यादि - पञ्चकातिरेकेणास्याऽश्रवणात् ।' उच्यते, चतुर्ज्ञानप्रकर्षोत्तरकालभावि केवलज्ञानादधः तदुदये सवित्रालोककल्पम् । इति न मत्यादिपञ्चकातिरेकेणास्य श्रवणम् । अस्ति चैतद्, अधिकृता(अधिकत्वा..... प्र०) वस्थोपपत्तेरिति एतद्विशेष एव प्रातिभमितिकृतं प्रसङ्गेन ('विस्तरेण'...प्र.) अवस्था में कर्मपुद्गलसे व्याप्त आत्मा के असंख्य सूक्ष्मतम अंश अस्थिर याने कम्पनशील रहते हैं । शैलेशी अवस्था के पूर्व योगों का निरोध हो जाने से शैलेशी दशा में आत्मप्रदेश अचल-अकम्पित बन जाते है। इससे अवशिष्ट समस्त कर्मबन्धन नष्ट हो मोक्ष-अवस्था प्रगट हो जाती है। योगसंन्यास शैलेशी अवस्था में प्रादुर्भूत होने के कारण, और शैलेशीकरण एक आयोज्यकरण नामक करण के बाद ही पैदा होनेसे, यह निश्चित होता है कि योगसंन्यास भी आयोज्य करण के बाद ही उत्पन्न होगा।
श्रेष्ठ योगः- इसीलिए शैलेशी अवस्था में संपूर्ण योगसंन्यास यानी योगोंका अभाव सिद्ध हो चुकने के कारण वह योगसंन्यास मैत्री आदि योगों में प्रधान योग कहा गया है। यह अयोग सर्व संन्यासरूप है, अर्थात् सभी अधर्म, कर्मउदय से निष्पन्न औदयिक धर्म, क्षायोपशमिक धर्म, एवं योग, इन सभी के त्याग स्वरूप है; और नामसे अयोग कहलाने पर भी 'योग' इसी वास्ते है कि वह आत्मा का मोक्ष के साथ योग करा देता है। योग का लक्षण है 'मोक्षेण योजनाद्योगः'- मोक्ष से जो मिलन करा देता है, वह योग है । निश्चयनय के हिसाब से उन सर्व संन्यासों की परिशुद्धि, यानी सर्वशुद्ध पराकाष्टा यहां हो जाती है। नववें श्लोकके साथ जो 'इत्यादि' शब्द दिया इसका यह अर्थ है।
इच्छायोग-शास्त्रयोग-सामर्थ्ययोग, ये सब 'योगदृष्टि समुच्यय' नामक शास्त्र के प्रारम्भ में कहे गये हैं। वहां लिखा है कि- “यहां इन तीन योगों की विवक्षा न कर आठ योगदृष्टियाँ सामान्य रूप से कही जाती हैं। इतना ध्यान में रहे कि यद्यपि यहां तीन योंगो की विवक्षा नहीं करते हैं, फिर भी वे आठों योगदृष्टियां विशेष रूप से इन तीनों योगों के द्वारा ही उत्पन्न होती हैं।
वे आठ दृष्टियाँ-१ मित्रा, २ तारा, ३ बला, ४ दीप्रा, ५ स्थिरा, ६ कान्ता, ७ प्रभा, और ८ परा, इन नामोंसे हैं; इनके अब लक्षण सुनिए।" (यह लेख देखने योग्य है)-(योगदृष्टि समुच्चय. श्लोक १२-१३)
चैत्यवन्दन सूत्रों में योगों का स्थानः -
यहां जो इच्छायोगादि तीन योग बतलाये गए, उनका चैत्यवन्दन सूत्रों में कहां कहां स्थान हैं उसकी अब चर्चा करेंगे। 'नमोऽर्हद्भ्यः ' अर्थात् 'नमो अरिहंताणं' इस पदसे इच्छायोगका नमस्कार कथित हुआ। 'नमो जिनेभ्यः जितभयेभ्यः' (नमो जिणाणं जिअभयाणं') इससे शास्त्रयोग का नमस्कार अभिप्रेत हैं; क्यों कि यहां किसी विशेषको न बतलाते हुए संपूर्ण 'नमो' मात्र पद का अभिधान किया गया है । 'नमो त्थु णं' इसमें तो 'नमः' पद के साथ 'अस्तु' पद का कथन है, जिससे वहां सामर्थ्ययोग की प्रार्थनापूर्वक इच्छायोगका नमस्कार कथित हुआ; लेकिन 'नमो जिणाणं' पद में तो शुद्ध 'नमो' पद का कथन है इसलिए इससे शास्त्रयोग के नमस्कार का कथन होता है। इसका विशेष प्रयोजन आगे अपने स्थान में कहेंगे। सूत्रो में आगे सिद्धस्तव नामके अन्तिम सूत्रमें एक गाथा है :
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