________________
"आइगराणं" (ल.)- एतेऽपि भगवन्तः प्रत्यात्मप्रधानवादिभिमौलिकसांख्यैः सर्वथाऽकर्तारोऽभ्युपगम्यन्ते 'अकर्ताऽऽत्मा' - इति वचनात् । तद्व्यपोहेन कथञ्चित् कर्तृत्वाभिधित्सयाऽऽह ('आईगराणं= ) आदिकरेभ्य' इति ।
(पं०)-'प्रत्यात्मप्रधानवादिभिः' इति-सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, सैव प्रधानम्, ततः आत्मानमात्मानं प्रति प्रधानं वदितुं शीलं येषां ते प्रत्यात्मप्रधानवादिनस्तैः । उत्तरे हि साङ्ख्या 'एकं नित्यं सर्वात्मसु प्रधानम्' इति प्रतिपन्नाः, तद्व्यवच्छेदार्थं - मौलिकसाङ्ख्यैरित्युक्तम् । तद्ग्रहणमपि च प्रत्यात्मकर्मभेदवादिनां जैनानां कर्तृत्वमात्रविषयैव तैः सह विप्रतिपत्तिरित्यभिप्रायात् कृतम्। निरालम्बन, एवं इच्छा-प्रवृत्ति-स्थैर्य-सिद्धि नाम के योग कहे गये हैं। इन सभीमें से श्रेष्ठ कोटि के योग सामर्थ्य योग, वृत्तिसंक्षय योग, परादृष्टि, इत्यादि महायोग हैं।
(६) प्रयत्न नामका 'भग' शब्द का छठवाँ अर्थ भी श्री अरिहंत परमात्मा में उत्कृष्ट वीर्य द्वारा समग्र रूपमें प्रादुर्भूत हुआ है। यह प्रयत्न एकरात्रिकी आदि प्रतिमाभावका उत्पादक होता है; और अन्तमें जा कर केवलि-समुद्घात एवं शैलेशी तक के कार्य से सुज्ञेय है।
प्र०- प्रतिमा किसे कहते हैं ?
उ०- योग्य हो विशिष्ट आराधनार्थ की जाती प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहते हैं । गृहस्थ जीवनमें ग्यारह श्रावकप्रतिमा और साधुजीवन में बारह भिक्षुप्रतिमा होती हैं । एकरात्रि की प्रतिमामें प्रतिज्ञाबद्ध हो रात्रिभर कायोत्सर्ग-ध्यानमें खडे रह कर देवों के उपद्रवसे भी चलित न होवे। ऐसा सिद्धशिला सन्मुख ऊँची अनिमेष दृष्टि से एकाग्रचित रहना होता है । इस प्रतिज्ञा के पालनमें क्षण मात्र भी स्खलना नहीं की जा सकती; इतना पूरा दत्तचित्त एवं अथाग प्रयत्नशील रहना पडता है। यह बारहवी भिक्षु प्रतिमा है।
प्र०- केवलि समुद्घात क्या चीज हैं ?
उ०- समुद्घात प्रबल प्रयत्न स्वरूप होता है। वह वैक्रियादि सात प्रकारका होता है। उस प्रसङ्ग में आत्माको प्रबल प्रयत्न करना पडता है। केवलि समुद्घात, यह केवलज्ञानी को अब अवशिष्ट वेदनीय कर्म, नामकर्म और गोत्रकर्मकी स्थितियां अवशिष्ट आयुष्य कर्म की स्थिति-प्रमाण करनेके लिए, करना आवश्यक होता है। इसका प्रयत्न ऐसा होता है कि सर्वज्ञ भगवान अपनी आत्मा के शरीरव्यापी प्रदेशोंकी प्रथम समयमें ऊर्ध्व अधो लोकान्त तक विस्तृत कर एक दण्डसा बनाते हैं। दूसरे समयमें उसी को पूर्वपश्चिम या उत्तरदक्षिण लोकान्त तक विस्तृत कर कपाट रूपमें स्थापित करते हैं। तीसरे समय में अवशिष्ट दिशामें दण्डको विस्तृत करके मंथानरूप बनाया जाता हैं । चौथे समय अवशिष्ट कोण के समस्त लोक आत्मप्रदेशसे व्याप्त किया जाता है। बादम इससे विपरीत क्रमसे आत्मप्रदेशों का संहार याने सङ्कोच करते करते पांचवे समय मंथान, छठवें समय कपाट, सातवें समय दण्ड और आठवें समय वापिस आत्मप्रदेश मात्र शरीरव्यापी किये जाते हैं। इतनी क्रिया कर्मोकी स्थिति सम हो जाती है। यह केवले. समुद्घात, विशिष्ट प्रयत्न-साध्य है।
इन छ: प्रकारों का 'भग' जिन्हें प्राप्त है, वैसे अरिहंत देव 'भगवान' कहलाते हैं । उन भगवान को नमस्कार हो; यह 'नमो त्थु भगवंताणं' का अर्थ हुआ। इस प्रकार 'आइगराणं, 'तित्थयराणं'.... इत्यादि हरेक पद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org