________________
(ल.)- इहादौ (?देः) करणशीला आदिकराः अनादावपि भवे तदा तदा तत्तत्काण्वादिसम्बन्धयोग्यतया विश्वस्यात्मादिगामिनो जन्मादिप्रपञ्चस्येति हृदयम् ।
(पं०)- अनेत्यादि, - 'अनादावपि' प्रवाहापेक्षया किं पुनः प्रतिनियतव्यक्त्यपेक्षया आदिमति, इति 'अपि' शब्दार्थः । 'भवे'=संसारे, 'तदा तदा' = तत्र तत्र काले, 'तत्तत्कर्माण्वादिसम्बन्धयोग्यतया''तत्तत्' = चित्ररूपं, 'कर्माणवो' ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामार्हाः पुद्गलाः, 'आदि' शब्दात्तेषामेव बन्धोदयोदीरणादिहेतवो द्रव्यक्षेत्रकालभावा गृह्यन्ते; तेन 'सम्बन्धः' =परस्परानुवृत्ति (प्र०...त) चेष्टारूप: संयोगः, 'तस्य योग्यता' = तं प्रति पह्वता, तया, 'विश्वस्य' = समग्रस्य । एवंविधयोग्यतैवात्मनः कर्तृत्वशक्तिरिति । 'आत्मादिगामिनः'= आत्मपरतदुभयगतस्य, 'जन्मादिप्रपञ्चस्य' प्रतीतस्य, 'इति हृदयम्' = एष सूत्रगर्भः । के साथ 'नमोऽत्थु = नमस्कार हो' क्रियापद जोड़ देना चाहिए।
निष्कर्ष यह आया कि प्रेक्षावान पुरुष के लिए ऐसे अरहंतपन और भगवंतपनसे युक्त देव ही स्तुति करने योग्य है इसलिए 'अरहंताणं भगवंताणं'- यह स्तोतव्य संपदा हुई ॥ (संपदा - १).
आइगराणं (सांख्यदर्शन का खंडन) अब 'आइगराणं' पद की व्याख्या करते कहते हैं कि प्रत्येक आत्मा के, साथ अलग अलग 'प्रधान' नामक तत्त्व मानने वाले मौलिक सांख्य दर्शन के लोग भगवान को भी सर्वथा अकर्ता मानते हैं; क्यों कि 'अकर्ताऽऽत्मा' अर्थात् जीव कर्ता नहीं होता है-ऐसा सांख्यसूत्र है। इस मान्यताका खंडन करके जीवमें कथंचित् कर्तृत्वका प्रतिपादन करने की इच्छा से सूत्रकार 'आइगराणं' = आदिकरेभ्यः पद जोड़ते हैं। इसका अर्थ है 'आदि करने वाले को'।
प्र०-यहां 'मौलिक सांख्य' ऐसा क्यों कहा?
उ० - सांख्य दर्शन के दो विभाग है; -१ - मौलिक सांख्य, और २. उत्तर सांख्य; अर्थात् एक मूलभूत सांख्य दर्शन और दूसरा उत्तरवर्ती यानी पश्चाद्वर्ती सांख्य दर्शन । उत्तर कालके सांख्य ‘एकं नित्यं सर्वात्मसु प्रधानम्' इस सूत्रसे सभी आत्माओंमें एक ही नित्य 'प्रधान' नामक तत्त्व का स्वीकार करते हैं। इन के निवारणार्थ यहां मौलिक सांख्य-ऐसा कहा गया। जितने पुरुष उतने प्रधान माननेवाले मौलिक सांख्योंका ग्रहण भी इस अभिप्राय से किया कि हरेक आत्मामें अलग अलग कर्म प्रकृतियां मानने वाले जैनोंका उनके साथ यहां मात्र कर्तृत्व संबन्धमें विवाद प्रस्तुत हैं। यों तो कई प्रकार के विषयमें विवाद है, लेकिन 'आइगराणं' पद यहां मात्र कर्तृत्व के विषयमें विवादसूचक हैं।
प्र०- प्रधान किसे कहते हैं ?
उ०-- प्रधान कहो या प्रकृति कहों दोनों एक ही चीज है। प्रकृति त्रिगुणात्मक होती है । सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं। इसमें ये तीनों समान अंशसे होते हैं। संसार के उत्तरोत्तर सभी आविष्कारों में मूल कारण, मूलभूत उपादान यही होनेसे यह प्रकृति कहलाती हैं, और मुख्य भी यही होनेसे इसे प्रधान शब्दसे संबोधित किया जाता है।
सांख्य लोग कहते हैं कि जगतमें पुरुष और प्रकृति दो तत्त्व हैं । अर्थात् आत्मा चेतन है. और प्रकृति जड है। अनादि काल से लेकर अनंत काल तक आत्मा सदा शुद्ध कुटस्थ अर्थात् अपरिवर्तित नित्य रहती हैं। और,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org