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(ल.)-तत्र तीर्थकरणशीलाः तीर्थकराः, अचिन्त्यप्रभावमहापुण्यसंज्ञिततन्नामकर्मविपाकतः, तस्यान्यथा वेदनाऽयोगात् । तत्र येनेह जीवा जन्मजरामरणसलिलं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीर महाभीषणकषायपातालं सुदुर्लध्यमोहावर्त्तरौद्रं विचित्रदुःखौघदुष्टश्वापदं रागद्वेषपवनविक्षोभितं संयोगवियोगवीचीयुक्तं प्रबलमनोरथवेलाकुलं सुदीर्घ संसारसागरं तरन्ति तत्तीर्थमिति । एतच्च यथावस्थितसकलजीवादिपदार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाऽऽधारं त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसम्पद्युक्तमहासत्त्वाश्रयं अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवादिपरमबोहित्थकल्पं प्रवचनं सङ्घो वा, (प्र०...'वा नास्ति) निराधारस्य प्रवचनस्यासम्भवात् । उक्तं च- "तित्थं भंते ! तित्थं ? तित्थगरे तित्थं ? गोयमा ! अरहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णो समणसङ्घो' । (प्रत्यन्तरे - 'अरिहा')
(पं०)-'महाभीषणकषायपातालम्' इति = पातालप्रतिष्ठितत्वात् तद्वद्गम्भीरत्वाच्च पातालानि, योजनलक्षप्रमाणाश्चत्वारो महाकलशाः, यथोक्तम् ‘पणनउई उ सहस्सा, ओगाहित्ता चउद्दिसिं लवणं । चउरोऽलिंजरसंठाणसंठिया होंति पायाला ॥' ततो महाभीषणाः कषाया एव पातालानि यत्र स तथा तम्, 'त्रैलोक्यगतशुद्धधर्मसम्पद्युक्तमहासत्त्वाश्रयमिति', - त्रैलोक्यगता भुवनत्रयवर्तिनः, 'शुद्धया' =निर्दोषया 'धर्मसम्पदा'= सम्यक्त्वादिरूपया, 'युक्ताः = समन्विताः, 'महासत्त्वाः' = उत्तमप्राणिनः 'आश्रयः' आधारो यस्य तत्तथा।
उ०- इस में प्रमाण वेदशास्त्र आगम ही हैं। ऐसे अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्यक्ष-अनुमानादि प्रमाण के द्वारा ज्ञात हो सकते नहीं हैं। कहा है कि, -
'अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते । वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स पश्यति ॥'
अतीन्द्रिय पदार्थो का कोई साक्षात् द्रष्टा नहीं हो सकता; जो नित्य आगम से जानता है वहीं उनका द्रष्टा है। पुरुष मात्र दोषपात्र होने का संभव है, और सदोष पुरुष पूर्ण आप्त बन सकता नहीं है, इसलिए उसका कथन कैसे प्रमाणभूत माना जाए? इसलिए हम कहते हैं कि वेदशास्त्र जो कि अपौरुषेय (किसी पुरुषसे नहीं रचा गया)
और नित्य हैं, वे निर्दोष होने के नाते अतीन्द्रिय पदार्थो की प्रमाणभूत व्यवस्था बतलाते हैं। इसलिए कोई पुरुष स्वतन्त्र रूपसे अतीन्द्रिय पदार्थ के शास्त्ररचयिता अर्थात् तीर्थकर नहीं हो सकता है। इस मतका निरास करने हेतु परमात्मा में तीर्थकरता स्थापित करने के लिए कहते हैं तित्थयराणं (तीर्थकरेभ्यः) ।
तीर्थकर मानने वालों का उत्तर:
यहां तीर्थकर वे हैं जो तीर्थ रचने के स्वभाववाले हैं। यह तीर्थरचना अचिन्त्य प्रभावशाली तीर्थंकरनामकर्म (जिननामकर) नामक महापुण्य कर्म के विपाक-उदयसे होती हैं। ऐसे पुण्यवान परमात्मा उस पुण्यकर्म के वेदनकालमें अर्थात् फलभोगकाल में तीर्थस्थापन करते हैं। उस कर्म का वेदन और किसी प्रकार से नहीं हो सकता हैं, तीर्थकरण द्वारा ही वेदन हो सकता है।
तीर्थ :
प्र०- तीर्थ किसे कहते हैं?
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