________________
बात ही कहाँ रही?
द्रव्यपूजाकी क्या आवश्यकता ? - प्र०- तब तो गृहस्थ भी केवल भावपूजा ही करे, द्रव्यपूजा क्यों करे?
उ०- गृहस्थ के लिए द्रव्यपूजाकी आवश्यकता इसलिए है कि,
(१) द्रव्यसंग्रहमें बैठा हुआ गृहस्थ द्रव्यकी मूर्छा कम न करे तबतक श्रद्धा, संवेग, वैराग्य, विरति, उपशम एवं अनासक्ति इत्यादि गुणोंसे गर्भित शुभभाव अपने में पैदा नहीं कर सकता; एवं वीतराग सर्वज्ञ देवाधिदेवकी पूजा वीतरागताके प्रति आकृष्ट होकर उनके आज्ञापालनकी रुचिसंपन्नतासे नहीं कर पाता। इसलिए तादृश शुभभाव में प्रतिबन्धक द्रव्यमूर्छाको हटाना आवश्यक है ; अतः द्रव्यपूजा उसके लिए जरुरी है। यद्यपि केवल द्रव्यपूजासे काम नहीं चलेगा; उसके साथ उपरोक्त शुभभावोंका लक्ष्य रखना गृहस्थके लिए भी अत्यन्त जरुरी है।
और भी एक कारण है कि गृहस्थ अपने सांसारिक जीवनमें विविध द्रव्योंके सहकारसे वैसे वैसे भावोंसे संपन्न होता है, इसलिए यहां भी द्रव्यपूजाके सहकारसे ही भावपूजामें फलभूत शुभभाव पा सकेगा; अतः शुभ अध्यवसाय स्वरूप भावकी संप्राप्ति हेतु द्रव्यपूजाका सहकार अनिवार्य एवं जरुरी है।
प्रतिपत्ति-पूजा :
प्रतिपत्ति पूजाका अर्थ है पूर्ण आप्त पुरुष-सर्वज्ञ पुरुष के उपदेशका पालन । यह पालन सर्वोत्कृष्ट कोटिका तो वीतराग आत्मामें होता है । वीतराग जीव तीन प्रकारके होते है, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवलज्ञानी । उन्होंमें ऐसी उत्कृष्ट प्रतिपत्तिपूजा लब्ध-अवसर होती हैं । कारण, उन्हें वैराग्य, तत्त्वरुचि, विरति, अनासक्ति, सर्वथा आत्मशुद्धि इत्यादिरूप सर्वज्ञकी आज्ञा पूर्णरूपसे आत्मसात् हो चुकी है, इसी लिए वे उत्कृष्ट द्रव्यभाव-संयम अर्थात् भावपूजाकी पराकाष्ठा का पद प्राप्त कर चुके है । नमस्कारका अर्थ पूजा ही है, अत: नमस्कार के चालू प्रकरणमें पूजा का इतना विवेचन अप्रस्तुत नहीं है। एवं भावपूजा की पराकाष्ठा न पाये हुए सब जीवोंके लिए तो उच्च-उच्चतर भाव नमस्कारकी प्रार्थना युक्तियुक्त है। अत: ('नमोऽस्त्वर्हद्भ्यः') 'नमो त्थु णं अरहंताणं' यह स्तुतिपाठ पढना बिलकुल सङ्गत है, निर्दोष है। इसमें मृषाभाषण का कोई दोष नहीं है।
प्र०- 'अरहंताणं' इस पदमें षष्ठी विभक्ति क्यों रखी गई है ? 'नमः' पदके योगमें तो चतुर्थी विभक्ति आती है न?
उ०- षष्ठी विभक्ति प्राकृत भाषाकी शैलीसे आई है। चतुर्थीका अर्थ प्राकृत भाषामें षष्ठी विभक्ति से सूचित किया जाता है; जैसे कि प्राकृतमें द्विवचनका भाव भी बहुवचनसे बतलाया जाता है। उदाहरणार्थ, 'जह हत्था तह पाया' मनुष्यको ज्यों दो हाथ है त्यों दो पैर होते हैं। कहा है, 'बहुवयणेण दुवयणं छट्ठिविभत्तीए भण्णइ चउत्थी।' जह हत्था तह पाया,- णमो त्थु देवाहिदेवाणं ॥
अनेक परमात्माओंको नमन क्यों ?
प्र०- अरिहंत परमात्माको नमस्कार करना है तो एकवचन-प्रयोग करके 'नमोत्थु णं अरहंतस्स' क्यों नहीं कहा? बहुवचन क्यों लिया? अनेक अरिहंत परमात्माओंको नमस्कार क्यों किया गया?
४४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org