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(ल.)-न चैतदेवं यत्, तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः ।
सामर्थ्ययोगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाधनम् ॥ ६ ॥ (पं०)-स्यादेतत्-अस्त्वेवमपि का नो बाधेत्यत्राऽऽह 'न चैतदेवं' (न च 'एतद्' =) अनन्तरोदितम् (एवं); शास्त्रादयोगिकेवलित्वावगमेऽपि सिद्ध्यसिद्ध; । ('यत्' =) यस्मादेवं, तस्मात्, ‘प्रातिभज्ञानसंगतो' = मार्गानुसारिप्रकृष्टोहज्ञानयुक्तः, किमित्याह 'सामर्थ्ययोग:' = सामर्थ्यप्रधानो योगः सामर्थ्ययोगः, प्रक्रमाद्धर्मव्यापार एव क्षपकश्रेणिगतो गृह्यते। अयमवाच्योऽस्ति तद्योगिस्वसंवेदनसिद्धः, 'सर्वज्ञत्वादिसाधनं' अक्षेपेणातः सर्वज्ञत्व (आदि)) सिद्धेः ॥ ६॥
सभी उपायों का ज्ञान आगमके द्वारा ही प्राप्त हो सकता है - जब ऐसा अगर आप मानते है, - तब इस अन्तिम उपायका भी ज्ञान आगम-श्रवण होते ही होना चाहिए, फलतः आगमसे ही अयोगि केवलिका स्वरूप निष्पन्न हो जाएगा तब मोक्ष क्यों न हो? लेकिन शास्त्र मात्रसे ऐसा होता नहीं है।
तात्पर्य सामर्थ्ययोगके विशिष्ट उपाय स्वानुभवगम्य है, आगमगम्य नहीं; फिर भी उनके प्रति आगमकी सामर्थ्य मानने पर श्रवणसिद्ध केवलज्ञान एवं श्रवणसिद्ध मोक्ष माननेकी आपत्ति उपस्थित होगी । लेकिन वास्तवमें केवलज्ञान और मोक्ष इस तरह प्राप्त होते नहीं है। इससे यह फलित होता है कि वे आगमसे निर्दिष्ट उपायोंकी अपेक्षा विशिष्टतर आत्म-सामर्थ्यसे सिद्ध उपायोंसे ही हो सकते है, अर्थात् सामर्थ्ययोग नामक तीसरे योग से ही केवलज्ञान और मोक्ष निष्पन्न हो सकता है, नहीं कि शास्त्रयोग से।
प्र० :- शास्त्रसे ही विशिष्ट उपाय अवगत हो, उसमें क्या बाधा है ?
उ० :- यह समझना चाहीए कि वस्तुतः शास्त्रसे सर्वज्ञता एवम् अयोगिकेवलिता के उपायका बोध जो शक्य मनाते है, वह होनेपर भी मोक्ष तो होता नहीं ! इसीलिए यह मानना होगा कि इसके अलावा विशिष्ट आत्मसामर्थ्यकी प्रधानतावाला सामर्थ्ययोग नामक कोई अवर्णनीय धर्म-व्यापार अपेक्षित है, कि जिससे तुरन्त ही सर्वज्ञत्वादिकी सिद्धि प्राप्त हो।
प्रातिभज्ञान और क्षपकश्रेणी:
यह सामर्थ्ययोग प्रातिभज्ञानसे समन्वित होता है। प्रातिभज्ञान उसे कहते हैं कि जो एक मार्गानुसारी उत्कृष्ट चिंतन-तर्कणात्मक ज्ञान है, और वह केवलज्ञान स्वरूप दिवाकरके उदयके पूर्ववर्ती अरुणोदयकी भाँति प्रगट होता है। धर्मव्यापार के प्रकरण से सामर्थ्ययोग भी धर्मव्यापार ही है। लेकिन क्षपकश्रेणी के पुरुषार्थ के अंतर्गत जो धर्मव्यापार है, वही सामर्थ्ययोग कर के लिया जाता है।
प्र० :- क्षपक श्रेणी का पुरुषार्थ क्या है ?
उ० :- क्षपकश्रेणी का पुरुषार्थ उसे कहा जाता है, जिसमें शुक्लध्यानके बलपर अन्तर्मुहूर्त मात्रकालमें मोहनीयकर्मकी प्रकृतियों का क्षय करते करते पूर्ण वीतरागदशा प्राप्त होती है; और बादमें शीघ्र ही ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म, एवम् अंतराय कर्मका मूलत: नाश हो जाता है। फलतः सर्वज्ञदशा याने केवलज्ञान प्रगट होता है, जिसमें समस्त जगत के समस्तकालवर्ती निखिल द्रव्योंका सर्व पर्याय सहित साक्षात्कार प्रगट हो जाता है।
दो प्रकार के सामर्थ्य योग -
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