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(ल.) - ५. तथा स्थैर्यं = ज्ञानद्यनुत्सेकः, तदज्ञानुपहसनं, विवादपरित्यागः, अज्ञबुद्धिभेदाकरणं, प्रज्ञापनीये नियोगः, सेयं पात्रता नाम बहुमता गुणज्ञानां विग्रहवती शमश्रीः, स्वाश्रयो भावसम्पदामिति ।
(पं) 'तदज्ञानुपहसनमिति = स्वयंज्ञातज्ञेयानभिज्ञानुपहसनम्, 'विवादपरित्यागः' तदनभिज्ञैः सहेति गम्यते, 'अज्ञबुद्धिभेदाकरणमिति' = सम्यक्चैत्यवन्दनाद्यजानतां तत्राऽप्रवृत्तिपरिणामाऽनापादनम्, 'प्रज्ञापनीये नियोग' इति = प्रज्ञापनीयमेव सम्यक्करणे नियुक्त इति ।
कुछ भी न होगा, तो वह ज्ञान कैसे स्थिर हो सकेगा, और उसमें बोधरूपता भी क्या होगी? परिणत सम्यग् बोध अल्पांश भी हो तो भी बादमें चित्तका विपर्यास नहीं हो सकता; तत्त्व-सम्बन्धमें भ्रान्ति और अश्रद्धा जैसा कुछ भी नहीं होने पाता। हां, कदाचित् विस्मरण या बेध्यान जैसा होना संभवित है, लेकिन वह तो सम्यग्ज्ञानस्वरूप वैद्य विशेष से निवारण-योग्य साध्य व्याधि-सा होता है। जैसे कुशल वैद्यसे साध्य व्याधिका नाश होता है, इसी प्रकार सम्यग् बोधसे विस्मरण, बेध्यान आदि दूर हो सकते हैं।
५. स्थै र्य व्याख्या ग्रहण करनेवालों को स्थैर्य भी चाहिए । जो ज्ञानसमृद्धि प्राप्त हो, इसका उतना महत्त्व उन्हें समझना आवश्यक है कि 'वह पवित्र ज्ञानसमृद्धि तभी आत्मपरिणत हो सकती है कि जब वह मूलभूत दोषों से अलिप्त हो' । इसके लिए यह अति आवश्यक है कि
(१) ज्ञानसमृद्धिसे संभावित गर्वनामक जो दोष है, वह उसे छू न पावे । कारण यह है कि गर्व से ज्ञान का प्रधान अमूल्य फल प्राप्त नहीं हो सकता।
___(२) ऐसी ज्ञान समृद्धि से रहित जीवों का उपहास भी स्वयं न करे; क्योंकि उपहास करने में प्रतिजीवोंका तिरस्कार होता है।
(३) इस ज्ञानसमृद्धिके बलपर वह अज्ञान पुरुषोंके साथ विवाद भी न करें; कारण कि उसमें, अज्ञान पुरुष अपनी अज्ञानतावश तत्त्व न समझनेसे, व्यर्थसी खिचातानी एवं समय-दुर्व्यय होता है।
(४) अज्ञान जीवोंका बुद्धिभेद याने चित्त-विपर्यास भी वह न करें। तात्पर्य, चैत्यवन्दनकी ज्ञानसमृद्धिके सम्बन्धमें ऐसा ऐसा वर्णन या बर्ताव न करें, जिससे सम्यक्चैत्यवन्दनादि न जाननेवाले जीवों की, अपनी शुभ प्रवृत्तिमेंसे, आस्था ही उठ जाए: उल्लास ही नष्ट हो जाए। और फलतः उसमें उसकी प्रवृत्ति ही रुक जाए ।
__ ऐसे दोषोंसे निर्लिप्त रहते हुए ऐसे उपदेशके लिए पात्र जीवोंको ही इस ज्ञानसमृद्धिका लाभ कराना चाहिए एवं उन्हें ही सम्यक्करणमें लगाना चाहिए।
ज्ञानीके लिए ये सब अनुचित हैं । अतः ऐसे क्षतियोंवालों के ज्ञानकी स्थिरता नहीं हो सकती, और व्याख्या-ज्ञान के लिए वे अपात्र यानी अयोग्य गिने जाते हैं। ऐसा ज्ञानसमृद्धिका निरभिमानत्व वगैरेह पात्रता है,
और यह गुण के मूल्यांकन करनेवाले पुरुषोंके लिए आदरणीय होती है । पुरुषोमें वह पात्रता सचमुच मूर्तिमान प्रशमलक्ष्मी-सी है, एवं भावसंपत्ति का बढिया आश्रय हो सकती है। (निरभिमानता, अज्ञोंको प्रोत्साहन, गांभीर्य, आदि गुण स्वयं आत्मामें गुप्त प्रशान्तभावके ऐसे व्यक्त रूप हैं कि यदि वे न हों तो भीतर प्रशान्तता कैसे मानी जाए? इतना ही नहीं बल्कि आत्माकी ज्ञानादि स्वरूप भावसंपत्ति उन गुणोंको शरण आ जाती है।)
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