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(ल.)-(६. तथा उक्तक्रिया) तथा उक्तस्य = विज्ञातस्य तत्तत्कालयोगिनः तदासेवन - समये तथोपयोगपूर्वं शक्तितस्तथाक्रिया । नौषधज्ञानमात्रादारोग्यम्; क्रियोपयोग्येव तत् । न चेयं यादृच्छिकी शस्ता प्रत्यपायसम्भवादिति ।
(पं०-) उक्तस्येत्यादि= वचनाऽऽदिष्टस्य चैत्यवन्दनादेः, तदैव विशिनष्टि 'विज्ञातस्य' = वचनानुसारेणैव विनिश्चितविषयविभागस्य, 'तत्तत्कालयोगिनः' = तेन तेन चित्ररूपेण कालेन तदवसरलक्षणेन सम्बन्धवतः । इत्थमुक्तं विशेषणम्, (प्र. विशेष्यम्) क्रियां विशेषयन्नाह - 'तदासेवनसमये' = तस्योक्तस्य करणकाले, 'तथोपयोगपूर्वं' आसेव्यमानानुरुप उपयोगः 'पूर्वो' = हेतुर्यत्र तद्यथा भवति, 'शक्तितः' = स्वशक्तिमपेक्ष्य, न तु तदतिक्र मेणापि, 'तथाक्रिया' = उक्तानुरुपप्रकारवान् व्यापारः । आह किमुक्त क्रि यया ? व्याख्याफलभूतादुक्तज्ञानादेवेष्टफलसिद्धिसम्भवादित्याशङ्क्याह 'न' = नैव, 'औषधज्ञानमात्रात्' = क्रियारहितादौषधज्ञानात् केवलाद् 'आरोग्यं' = रोगाभावः । कुत इत्याह 'क्रियोपयोग्येव तत्' । यतः "क्रियायां' = चिकित्सालक्षणायाम्, 'उपयुज्यते' = उपकुरुते, तत्छीलं च यत्तत्तथा । नाऽऽरोग्योपयोगवदपीति एवकारार्थः । 'तद्' इति = औषधज्ञानमात्रं, क्रियाया एवारोग्योपयोगात् । तर्हि क्रियैवोपादेया, न ज्ञानम् ? इत्याशङ्क्याह 'न
चेय' मित्यादि । 'न च' = नैव, 'इयं' = वन्दनादिक्रिया 'यादृशी तादृशी' = यथा तथा कृता, 'शस्ता' = इष्टसाधिका मता, किन्तु ज्ञानपूर्विकैव शस्ता भवतीति।
. ६.उक्तक्रिया ___ छठवाँ व्याख्या-अङ्ग है उक्तक्रिया । इसका अर्थ है कि शास्त्रवचनसे जिसका आदेश दिया गया है १. उस चैत्यवन्दनादिके विषयविभागको शास्त्रवचनके अनुसार ही सुनिश्चित करे, और २. उसमें तत् तत् काल याने भिन्न भिन्न उचित समयका सम्बन्ध रख कर उसका अनुष्ठान करना चाहिए। वह अनुष्ठान भी कैसा? ३. शास्त्रवचनसे आदिष्ट अनुष्ठानकी साधना का अवसर आने पर साधना के यथोचित ध्यानपूर्वक और शक्तिके अनुसार ही, नहीं कि शक्तिका उल्लंघन कर, वचनोक्त प्रकारवाला अनुष्ठान करना आवश्यक है।
प्र०- तो फिर सूत्र-व्याख्यासे निर्दिष्ट चैत्यवन्दनादि का अनुष्ठान ही करनेकी क्या जरूर? व्याख्याके फलस्वरूप ज्ञानसे ही इष्ट फल सिद्ध हो जायगा।
उ०- जिस प्रकार औषधसेवनकी क्रिया जिसे चिकित्सा कहते हैं वह अगर न की जाए और सिर्फ औषधका ज्ञान मात्र रखे तो आरोग्य नहीं मिल सकता याने रोग दूर नहीं हो सकता है; क्यों कि औषध-ज्ञानका उपयोग क्रिया पर ही है, नहीं कि आरोग्य पर। अर्थात् औषध ज्ञानसे मात्र चिकित्सास्वरूप सम्यक् क्रिया निष्पन्न हो सकती है, आरोग्य नहीं; आरोग्य तो औषधसेवन स्वरूप चिकित्सासे ही प्राप्त हो सकता है; इस प्रकार चैत्यवन्दनादि की व्याख्याका ज्ञान उसके अनुष्ठानमें उपयुक्त है, नहीं कि फलमें,- फल तो चैत्यवन्दन क्रियाकी साधनासे ही प्राप्त हो सकता है।
प्र०- तब तो साधना ही की जाए, ज्ञानप्राप्ति की क्या आवश्यकता?
उ०- ज्ञानकी काफी जरूरत है, क्यों कि बिना ज्ञान अगर चैत्यवन्दनादि क्रिया जैसी-वैसी की जाए तो वह इष्टसाधक नहीं मानी है। इससे तो उलटा नुकसान होता है। ज्ञानपूर्वक और ठीक रूपसे की गई क्रिया ही प्रशंसनीय है।
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