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नमोऽत्थु णं अरहताणं-भगवंताणं, आइगराणं - तित्थयराणं - सयंसंबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणंपुरिससीहाणं - पुरिसवरपुंडरीयाणं - पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं - लोगनाहाणं - लोगहियाणं - लोगपईवाणं - लोगपज्जोअगराणं, अभयदयाणं - चक्खुदयाणं - मग्गदयाणं - सरणदयाणं - बोहिदयाणं, धम्मदयाणं - धम्मदेसयाणं - धम्मनायगाणं - धम्मसारहीणं - धम्मवरचाउरतंचक्कवट्टीणं, अप्पडिहयवरनाणदसंणधराणं - वियदृछउमाणं, जिणाणं-जावयाणं तिण्णाणं-तारयाणं बुद्धाणं - बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं, सव्वन्नूणं-सव्वदरिसीणं - सिव - मयल - मरुअ - मणंत - मक्खय - मव्वाबाह - मपुणरावित्ति - सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जिअभयाणं ।
अब किसी भी प्रकारका पक्षपात किए बिना अनधिकारीकी उपेक्षा करके, पूर्वोक्त अधिकारीको लक्षमें रखकर प्रस्तुत चैत्यवन्दनसूत्र का विवेचन करते हैं -
__ यहाँ चैत्यवन्दन, 'प्रणिपातदण्डक' सूत्र अपरनाम शकस्तवसूत्र पढने पूर्वक ही होता है, अतः सर्व प्रथम इस सूत्रकी ही व्याख्या की जाती है। चैत्यवन्दन शुरु करनेसे पूर्व यह विधि है -
चैत्यवन्दन-पूर्वविधि चैत्यवन्दनार्थी साधु या श्रावक जिनमन्दिर आदिमें अत्यन्त एकाग्र बनकर अन्य सब कर्तव्योंको मनसे भी छोड दे और चैत्यवन्दनकी भावात्मक परिणतिमें मनको अत्यन्त दीर्घ काल तक स्थिर करके श्री अरिहन्त भगवानकी पूजा-सत्कार विधिका सम्पादन अपनी शक्ति और सम्भावनाके अनुरूप करें । बादमें चैत्यवन्दन करनेकी भूमि पर किसी भी जीवजन्तुका नाश न हो अथवा उसे तनिक भी कष्ट न पहुंचे ऐसी निर्जीव भूमिको देखकर परमगुरु श्री अर्हत्प्रभु द्वारा उपदिष्ट विधिके अनुसार भूमिकी प्रमार्जना करें और उस पर अपने दो घुटने तथा हस्ततल स्थापित करे। इस समय वन्दनके लिये आवश्यक ऐसी भावोर्मि अर्थात् अत्यन्त तीव्र शुभ अध्यव्यवसाय भी उल्लसित होते रहने चाहिए। साथ ही जिनेश्वरदेवके प्रति ऐसे भक्तिका समुद्र उस समय उमड पडे जिससे अपने नेत्र आनन्दाश्रुसे भर जाएँ, और शरीरपर रोमांच हो आएँ । ऐसे भगवद्भक्तकी दृष्टिमें भगवानके चरणोंकी वन्दना इतनी अपरिमित लाभकारी प्रतीत होती है, कि भक्तिके भावावेशमें उसका हृदय पुकार उठता है कि
"अहो ! मिथ्यात्वरुपी जलके निधि रूप, अनेक मिथ्या मत और मिथ्यामती रूपी जलचर जन्तुओंसे भरे हुए संसार-सागरमें, तथा आयुष्यको क्षणभंगुरताके बीच भी अरिहन्त भगवान के चरणोंमें वन्दन करने का प्राप्त होना अत्यन्त ही दुर्लभ है। यह वन्दन समस्त कल्याणोंका एकमात्र ही उत्पादक है। इसके आगे चिन्तामणिरत्न तथा कल्पवृक्ष आदिकी उपमाएँ भी तुच्छ है; (क्योंकि दर्शनसे जो सर्वोच्च एवं कल्पनातीत लाभ प्राप्त होता है उसके सम्मुख तो चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष आदिसे प्राप्त होनेवाले लाभोंकी कोई गिनती ही नहीं है - वे अत्यन्त तुच्छसे प्रतीत होते है । अर्हत्-वन्दना तो अपरिमित, अनन्त एवं शाश्वत लाभ प्रदान करती है, जबकि इसकी दृष्टिमें चिन्तामणि आदिसे मिलनेवाले लाभ मात्र ऐहिक, परिमित, कम और विनश्वर होते हैं।) अहो ! किसी अगम्य भाग्योदयसे मुझे यह वन्दन करनेका मौका प्राप्त हुआ है। इस वन्दनसे बढकर और कोई दूसरा उत्तम कर्तव्य नहीं है।"
इस प्रकार मनमें दृढ भक्तिवश चिन्तन करता हुआ भक्त अपनी आत्माको कृतार्थ समझकर त्रिभुवनगुरु अर्हत् परमात्मामें अपनी चक्षु एवं मनको स्थापित करें। बादमें वन्दनके लिए प्रणिपातदण्डक सूत्र (अर्थात्
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