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(ल०) - (५) चालना तु अधिकृतानुपपत्तिचोदना । यथा, 'अस्तु' इति प्रार्थना न युज्यते तन्मात्रादिष्टासिद्धेः । (६) प्रत्यवस्थानं तु नीतितस्तन्निरासः, यथा युज्यते एव, इत्थमेवेष्टसिद्धेरिति । पदयोजनामात्रमेतद्, भावार्थं तु वक्ष्यामः ।।
व्याख्यानानि तु जिज्ञासादीनि, तद्व्यतिरेकेण तदप्रवृत्तेः । तत्र धर्म प्रति मूलभूता वन्दना ।
(१) जिज्ञासा- 'अथ कोऽस्यार्थः' इति ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा । न सम्यग्ज्ञानाद् ऋते सम्यक्क्रिया, 'पढमं नाण तओ दया' इति वचनात् । विशिष्टक्षय-क्षयोपशमनिमित्तेयं नासम्यग्दृष्टेर्भवतीति तन्त्रविदः ॥
. विशुद्ध मनको क्रियामें स्थापित करना उसे भाव संकोच कहते हैं। जैसे कि, पौद्गलिक फलकी कामना रखे बिना चैत्यवन्दनके सूत्र, अर्थ और परमात्मामें चित्त को स्थापित करना । यह 'नमः' पदका अर्थ हुआ।
'अस्तु' पदका अर्थ है 'हो' । इसका अर्थ 'प्रार्थना' होता है। अर्थात् 'नमोऽस्तु - नमःअस्तु' पदसे नमस्कार की प्रार्थना की गई है। ‘णं' पदका अर्थ कुछ नहीं, सिर्फ प्राकृत भाषा के ग्रन्थ के शैली से वाक्यालंकार रूपमें ही इस सूत्रमें इसका उपयोग किया गया है। संस्कृतभाषामें उसका प्रयोग नहीं दिखता है।
'अरहंत' का अर्थ :
'अर्हद्भ्यः (अरहंताण)' इस पदका अर्थ है अर्हत् (अरहंत) देवको । अर्हत् परमात्मा ये ही है जो अनंतज्ञानस्वरूप ज्ञानातिशय, वीतरागतादिरूप अपायापगमातिशय, वचनातिशय, इन्द्रादिसे पूज्यतारूप पूजातिशय इत्यादि चौत्तीस अतिशयोंकी पूजाके योग्य हैं । अर्हत् परमात्माका देह प्रस्वेद-रोगादिसे रहित होता है; सांस कमलके समान सुगंधित होती है; रक्त गौ के दूध की भांति सफेद होता है; चलते समय पैर रखनेके लिए देवता नौ मृदु सुवर्ण कमल मार्गपर योजित करते हैं। वे निरंतर सिंहासन चामरादि प्रातिहार्य स्वरूप विभूतिसे युक्त होते हैं, सर्व जीवोंसे सुग्राह्य एवं सर्व संशयभेदक तथा भाषालंकारसहित, इत्यादि पैंतीस विशिष्ट गुणसंपन्न वाणीसे प्रवचन करते हैं..... ऐसी ३४ विशेषताओं को अतिशय कहा जाता है। ये पदों के अर्थ हुए।
(४) पदविग्रह उन्हीं पदोंका होता है जो समासके घटक होते हैं । अतः यहाँ समास न होने के कारण पदविग्रहका अवसर नहीं है।
(५) चालना नामके पांचवे व्याख्यालक्षणका अर्थ है, प्रस्तुत विषयकी असंगतताकी संभावना करना। जैसे कि, यहाँ 'नमस्कार हो' इस कथनसे 'हो' पदद्वारा प्रार्थना की गई; किन्तु यह युक्तियुक्त नहीं है, क्यों कि प्रार्थना मात्रसे इष्ट वस्तुकी सिद्धि नहीं हो सकती । (नमस्कारकी प्रार्थना करने मात्रसे नमस्कार प्राप्त नहीं हो सकता। यह हुई प्रस्तुत नमस्कार - प्रार्थनाकी असंगतता।)
(६) अब प्रत्यवस्थान है, युक्तिपूर्वक उस असङ्गतिका निवारण करना; जैसे कि, प्रार्थना युक्तियुक्त ही है क्योंकि प्रार्थनासे ही इष्ट नमस्कारकी सिद्धि होती है। इस युक्तिकी चर्चा का यहाँ अवसर नहीं है। आगे कहेंगे कि किसी भी धर्मकी सिद्धि करनेके लिए उस धर्मके बीज अंकुर आदिके रूपमें उसकी विशुद्ध प्रशंसा, अभिलाषा वगैरह कारणभूत है। प्रार्थनामें इस अभिलाषा आदिकी ठीक सिद्धि होती है; अतः कहा गया कि प्रार्थनासे ही इष्ट सिद्धि होती है। यह तो पदों की योजना मात्र दिखलाई गई है। उनके भावार्थ आगे कहेंगे।
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