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कृतनाश-अकृताभ्यागम नामके दोनों दोष केवल नित्य आत्मा माननेवालेको भी इस प्रकार लगते हैं कि ऐसा नित्य आत्मा कुछ भी करे लेकिन नित्य होनेके नाते उसके फलभोगका परिवर्तन नहीं सह सकेगा। यों कृतनाश अर्थात् कृतकर्मका विना फलभोग नाश हुआ। एवं वर्तमानमें जो आत्माकी दशा है उसके लिए भी, स्वयं एकान्त नित्य होने के सबब प्राक् कालमें कर्मकारणका परिवर्तन सहा नहीं होगा; इस प्रकार न किये कर्मका फलभोग आनेसे अकृतागम दोष लगा । एकान्ततः अनित्य आत्मा माननेमें भी वर्तमान कृत्यकारी आत्मा अनित्यतावश नष्ट हो जानेसे फलभोग नहीं कर सकता; यह कृतनाश हुआ। और वर्तमान फलभोग करता हुआ जीव प्राक् कालमें उस फलके हेतुभूत कृत्य करनेके लिए था ही नहीं; इस प्रकार अकृत कर्मका फलभोग उन्हें मिला यह अकृतागम दोष हुआ । जैनदर्शनमें अनेकान्त सिद्धान्त होनेके कारण ये दोष नहीं लगते हैं।
प्रश्न - ऊपर आपने कहा कि जैनदर्शनमें इतर दर्शनोंका समन्वय होता है, तब तो यदि वे दर्शन सदोष हैं तो उनके दोष भी जैनदर्शनमें आएँगे ही। तो फिर जैनदर्शनको निर्दोष दर्शन कैसे कह सकते हैं ?
उत्तर - किसी भी पदार्थको समझना-कहना अमुक दृष्टिसे याने अमुक अपेक्षासे होता है। जो यह समझानेका कार्य करता है और कहनेका, उसे दर्शन कहते हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य आदि दर्शन वस्तुको एक एक दृष्टिकोणसे समझते हैं। ढालकी एक बाजू सोनेकी और दूसरी बाजू चाँदीकी हो और उसे दो तरफसे दो व्यक्ति देखे तो उनमेंसे एक उसे सोनेकी और दूसरा चाँदीकी देखेगा और कहेगा। दोनों अपनी अपनी दृष्टिसे वस्तुके जितने अंशमें प्रत्यक्ष कर रहे हैं उतने अंशमें सही है। कारण ढाल सोनेकी भी है और चाँदीकी भी है; परन्तु कोई उसे केवल सोनेकी या केवल चाँदीकी कहे तो उनका वैसा समझना और कहना सम्पूर्ण सत्य तो नहीं वरन् इतरांशका निषेध करनेसे असत्य भी होगा। सम्पूर्ण सत्य तो है इन दोनों को योग्य स्वरूपमें समझने पूर्वक उनका समन्वय कर के कहना कि ढाल एक तरफसे चाँदीकी बनी है और दूसरी तरफसे सोनेकी । ऐसी बातको समझानेके लिये जैनदर्शन 'कथंचित्' अथवा 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करता है। इन शब्दोंका अर्थ होता है 'अमुक दृष्टिसे, अमुक अपेक्षासे।' उदाहरणार्थ 'आत्मा स्यात् नित्य है, स्यात् अनित्य है' अर्थात् 'आत्मा नित्य है ही, लेकिन अमुक अपेक्षासे; एवं अनित्य है ही किन्तु अमुक अपेक्षासे ।' जब दूसरेकी बात न मानकर अपना ही ढोल पीटा जाय तब दोष आता है। न्यायवैशेषिक आदि दर्शन जब कहते हैं कि 'आत्मा नित्य है' तब उनका यह कहना तो सही है, लेकिन वे अपने एक ही दृष्टिकोणसे प्रतीत होनेवाली वस्तुको मानकर जब बौद्धदर्शनसे पेश किये गए दूसरे दृष्टिकोणसे सिद्ध जो वास्तविक अनित्यता, उसका इन्कार करते हैं तब उनका कहना असत्य होता है। बिलकुल असत्य रहित सत्यको
और दूसरे के यथार्थकथनके मर्म को समझनेके लिए दृष्टि विशाल एवं गहरी बनानी आवश्यक है। ऐसी दृष्टि रखनेवाले जैनदर्शनमें जब दूसरे दर्शनोंसे मान्य नित्यत्व एवं अनित्यत्व अनेकांत शैलीसे मान्य किये गये हैं, तब उसमें उन दर्शनोंका समन्वय तो हुआ ही; लेकिन साथ-साथ, उन दर्शनोंसे मान्य किये गए अनित्यत्वाभाव और नित्यत्वाभाव जब जैनदर्शनमें मान्य हैं ही नहीं, तब उन मान्यताओंके कारण उन दर्शनोंपर पडनेवाले दोष जैनदर्शनमें कैसे लग सकते हैं ? तात्पर्य, इसमें दोनों पक्षोंकी मच्चाइका संग्रह है, जब कि तनिक दोषका संग्रह नहीं।
जैन दर्शनका इतर दर्शनमें असमावेश :प्र०- यह ठीक है, लेकिन जैनदर्शनका अंशतः समावेश भी इतर दर्शनोंमें क्यों नहीं ?
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