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(ल०) आह 'क इवानधिकारिप्रयोगे दोष' इति । उच्यते - सह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पम्, अनेकभवशतसहस्रोपात्तानिष्टदुष्टाष्टकर्म्मराशिजनितदौर्गत्यविच्छेदकमपि इदमयोग्यत्वात् अवाप्य न विधिवदासेवते, लाघवं चास्यापादयति । ततो विधिसमासेवकः कल्याणमिव महदकल्याणमासादयति । उक्तं च, " धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्प्रत्यपायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौघजनको दुष्प्रयुक्तादिवौषधात् ।।'' इत्यादि । अतोऽनधिकारिप्रयोगे प्रयोक्तृकृतमेव तत्त्वतस्तदकल्याणम्; इति लिङ्गैस्तदधिकारितामवेत्यैतदध्यापने प्रवर्तेत ।
(पं०) क इवेति = कीदृशः ।
स्वरूप दिखाई पडता हो, तब वह गुण रूप है । अन्तिम ध्येयका निर्णय न रखता हो और अनुचित साहस कर बैठता हो, तब संभव है कि इसका अशुभ परिणाम अपनेमें धर्मका बाधक अथवा लोकमें धर्म निन्दाका प्रयोजक
बन जाए ।
इन चिन्होंसे चैत्यवन्दन धर्मकी अधिकारिता देखकर चैत्यवन्दन- सूत्र पढाने में प्रवृत्ति की जाए । अन्यथा दोष होता है ऐसा कहा है ।
प्र० - अनधिकारीको देने में क्या दोष है ?
अनधिकारीको देने में हानि
उ०
- दोष यह है कि चैत्यवन्दनादि धर्म तो अचिन्त्य चिन्तामणि समान है, एवं अनेक लाखों जन्मोंमें उपार्जित अनिष्ट और दुष्ट आठ कर्मोके समूह से उत्पन्न होती दुर्दशाका उच्छेदक है; फिर भी वह अनधिकारी स्वयं अयोग्य होनेके कारण उस धर्मको प्राप्त करके विधिपूर्वक उसकी आराधना नहीं करता है, और उसकी लघुताका कारण बनता है। फलतः जैसे विधिपूर्वक आराधना करनेवाला कल्याण को प्राप्त करता है, वैसे वह विधिविराधक बडे अहितको प्राप्त करता है । कहा भी है कि, ' धर्म क्रियाएँ शास्त्रीय नियमों के भङ्गसहित करनेसे, औषधके विपरीत प्रयोगकी तरह, उसे भयंकर दुःखसमूहको देनेवाला महान नुकशान होता है....' इत्यादि । तात्पर्य यह है कि अनधिकारीको धर्ममें लगाने से उसका जो अहित होता है, वह उसे लगानेवालेसे ही निर्मित है। इसलिए पूर्वोक्त चिह्नों से उसकी अधिकारिताको जानकर ही उसे चैत्यवन्दनसूत्र पढानेमें प्रवृत्त होना उचित है।
(चैत्यवन्दनादि धर्म यावत् सूत्रपठन तक का धर्म अचिन्त्य चिन्तामणि है । लौकिक चिन्तामणि बहुतकर इस जन्ममें दारिद्र्यादि दुर्दशाको मिटाता है, किन्तु यह तो कई लाखों भवों के पापों से संभावित दुर्गतिकी विडम्बनाओंका नाश करता है। लेकिन वह तब, कि जब धर्म सम्यक् विधिसे किया जाए। पूर्वोक्त पंद्रह गुणोंसे रहित अनधिकारी जीव चैत्यवन्दनादि महाधर्मको सम्यक् विधिसे नहीं कर पाता, वरन् वह जगतके बालजीवोंकी दृष्टिमें धर्मको हंसीपात्र बनाता है। यह एक घोर दुष्कृत्य है, जिसका कटु फल उस आत्माके भयङ्कर विनाशमें है। परलोक में उसे मात्र दुःखोंका अनुभव ही नहीं, किन्तु उसके विशेषतः दुष्ट बुद्धिका निर्माण होता है, जिससे वह अधिकाधिक दुष्ट कृत्योंमें फँसता है । इतना उसके गंभीर अहितका उत्थान मूलतः उसे सूत्रपठनादि करानेवालेसे हुआ यह स्पष्ट है। अतः अध्ययन कराने के पूर्व अधिकारिताका निर्णय लेना आवश्यक बतलाया ।) अधिकारीको ही सूत्रपाठादि धर्म देना यह जो विधान है, उसका ठीक पालन करनेवालेने ही श्री जिनवचनकी आराधना की । आज्ञा का बहुमान करनेसे त्रिभुवन गुरु श्री अरिहंत परमात्माका सच्चा बहुमान
आता
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