Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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रखते हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस उपदेशको उन्होंने आर्यमंक्षुका बतलाया है वह भी साधार ही बतलाया है और जिसे उन्होंने नागहस्तिका बतलाया है वह भी साधार ही बतलाया है। अतः इससे सिद्ध है कि दिगम्बर परम्परामें इन दोनों आचार्योंके उपदेशोंकी आनुपूर्वी पठन-पाठन तथा टीका-टिप्पणी आदि रूपसे यथावत् कायम रही । किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें ऐसा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता । उस परम्परामें जितना भी कार्मिक साहित्य उपलब्ध है उसमें कहीं भी अन्य गर्ग प्रभृति आचार्योंके मत-मतान्तरोंकी तरह इन आचार्योंका नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। उक्त प्रस्तावना लेखकको चाहिए कि वे इस विषयमें एक नन्दिसत्र पदावलिको निर्णायक न मानें। किन्तु अपने कार्मिक साहित्यपर भी दृष्टिपात करें। यदि वे तुलनात्मक दृष्टिसे दोनों परम्पराओंके कार्मिक साहित्यपर सम्यक रूपसे दृष्टिपात करेंगे तो उन्हें न केवल वास्तविकताका पता लग जायगा, किन्तु वे नन्दिसूत्रको पट्टावलिमें आर्यमंक्षु और नागहस्तिका उल्लेख होने मात्रसे उसके आधारपर कषायप्राभूत और उसके चूर्णिसूत्रोंको श्वेताम्बर मतका होनेका आग्रह करना भी छोड़ देंगे। ( उस परम्परामें एतद्विषयक अन्य उल्लेख नन्दिसूत्र पट्टावलिका अनुसरण करते हैं, अतः उनपर विचार नहीं किया ।)
इस प्रकार इतने विवेचनसे यह सिद्ध हो जानेपर कि कषायप्राभूत और उसकी चूणि दिगम्बर आचार्योंकी अमर कृतियाँ है, चूणिसूत्रोंके रचनाकालका कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता। फिर भी इस विषयको जयधवला प्रथम भागमें कालगणनाके प्रसंगसे अत्यन्त स्पष्टरूपमें स्वीकार कर लिया गया है कि वर्तमान त्रिलोक प्रज्ञप्तिको आचार्य यतिवृषभकी कृति स्वीकार करनेपर चूर्णिसूत्रोंकी रचनाकी यह कालगणना की जा रही है। प्रस्तावना (पृ. ४६ ) के शब्द है
'हमने ऊपर जो समय बतलाया है वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति और चूणिसूत्रोंके रचयिता यतिवृषभको एक मानकर उनकी त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर लिखा है।'
अब यदि वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्ति संग्रह ग्रन्थ होनेसे या अन्य किसी कारणसे उन्हीं आचार्य यतिवृषभकी कृति सिद्ध नहीं होती है जिनकी रचना कषायप्राभृतके चूणिसूत्र हैं तो इसमें दिगम्बर परम्पराको या जयधवलाके प्रस्तावना लेखकोंको कोई आपत्ति भी नहीं दिखलाई देती। यह एक स्वतन्त्र ऊहापोहका विषय है और इस विषयपर स्वतन्त्ररूपसे ऊहापोह होना चाहिए। किन्तु इस आधारपर कषायप्राभूत या उसके चूर्णिसूत्रोंको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका अनुचित प्रयास करना शोभास्पद प्रतीत नहीं होता।
__ अपनी प्रस्तावनाके इसी प्रकरणमें उक्त प्रस्तावना लेखकने अपने साम्प्रदायिक मान्यताके आग्रहवश दिगम्बर परम्पराको एक मत बतलाकर उसकी उत्पत्ति 'दिगम्बर मतोत्पत्तिनो काल वीर सम्वत् ६०० पछी छ ।' इन शब्दों द्वारा वीर सं० ६०० के बाद बतलाई है। सो इसे पढ़कर ऐसा लगता है कि उक्त प्रस्तावना लेखकको प्रकृत विषयके इतिहासका सम्यक् अनुसन्धान करनेकी अपेक्षा बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थस्वरूप प्राचीन श्रमण परम्परा, उसके प्राचीन साहित्य और इतिहासको श्वेताम्बरीकरण करनेकी अधिक चिन्ता दिखलाई देती है । अन्यथा वे दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें कौन अर्वाचीन है और कौन प्राचीन है इसका उल्लेख किये बिना उक्त साहित्यविषयक अन्य प्रमाणोंके आधारसे मात्र गुणधर और यतिवृषभ इन दोनों आचार्यों और उनकी रचनाओंके कालका ऊपापोह करते हुए अपना फलितार्थ प्रस्तुत करते ।।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि प्रकृतमें पहले हमने ( उक्त प्रस्तावना लेखकने) उक्त दोनों आचार्योंको प्राचीन ( वीर नि० सं० ४६७ लगभगका ) सिद्ध किया है और उसके बाद दिगम्बरमतकी उत्पत्तिको वीर नि० ६०० वर्षके बादकी बतलाकर उन्हें श्वेताम्बर सिद्ध किया है। पर विचारकर देखा जाय तो किसी भी वस्तुको इस पद्धतिसे अपने सम्प्रदायको सिद्ध करनेका यह उचित मार्ग नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पूर्व में बतला आये हैं, ऐसे अन्य अनेक प्रमाण है जिनसे उक्त दोनों आचार्य तथा उनकी रचनाएँ कालकी अपेक्षा प्राचीन होनेपर भी न तो वे आचार्य श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं और न उनकी रचनाएं ही श्वेताम्बर सिद्ध होती हैं।