Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ६९ ]
सत्तमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
* णिरयगदीए एगस्स जीवस्स को होवजोगद्धट्ठाणेसु णाणाजीवाणं
जवमज्भं ।
$ २४६. एत्थ णिरयगइणिद्देसो सेसगईणं पडिसेहट्ठो, सव्वासिमकमेण परूवणोवायाभावाद । तत्थ वि कोहादिकसायाणं चउण्हमकमेण परूवणोवायाभावादो कोहकसायविसयमेव ताव पयदपरूवणं वत्तइस्सामो त्ति जाणावणडुमेगजीवस्स को होव - जोगट्ठाणे ति णिसो कओ । एत्थेगजीवणिद्देसो कोहोवजोगद्वाणाण मेगजीवोदाहरणमुहेण सुहाववोहणदुमिदि दट्ठव्वं । तदो एगजीवस्स कोहोवजोगट्ठाणाणमंतोमुहुत्तमेत्ताणमेगसेढिआगारेण रचणं काढूण तत्थ णाणाजीवाणमवद्वाणक मप्पदंसणमेदं वुच्चदे - णाणाजीवाणं जवमज्झमिदि । तेसु अद्धट्ठाणेसु एयजीवविसयत्तेण णिद्धारिदसरूवेसु णाणाजीवाणं जवमज्झायारेणावद्वाणं होइ ति भणिदं होइ ।
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$ २४७. संपहि एदस्सत्थस्स किं चि फुडीकरणं' वत्तइस्साम । तं जहाजहए उवजोगद्धट्ठाणे जीवा असंखेजसेढिमेत्ता होंति । विदिए वि उवजोगट्ठाणे जीवा असंखेजसेढिमेत्ता चेव होंति । होंता वि जहण्णट्ठाणजीवे आवलियाए असंखेजदिभागेण खंडियूणेयखंडमेत्तेण भहिया होंति । पुणो वि एण विहिणा द्वाणं पडि विसेसाहियसरूवेण गच्छमाणा भागहारमेत्तोवजोगट्ठाणाणि गंभ्रूण तदित्थोव
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* नरकगतिमें एक जीवके क्रोधकषायसम्बन्धी उपयोग - अद्धास्थानों में नाना जीवोंकी अपेक्षा यवमध्य होता है ।
$ २४६. इस चूर्णसूत्र में 'नरकगति' पदका निर्देश शेष गतियोंके प्रतिषेध के लिए किया है, क्योंकि सभी गतियोंके एक साथ प्ररूपण करनेका कोई उपाय नहीं है । उसमें भी चारों क्रोधादि कषायों के एक साथ प्ररूपण करनेका कोई उपाय न होनेसे क्रोधकषायविषयक प्रकृत प्ररूपणाको ही सर्वप्रथम बतलाते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'एक जीवके क्रोधसम्बन्धी उपयोग-अद्धास्थानोंमें' इस पदका निर्देश किया है । यहाँपर 'एक जीव' पदका निर्देश क्रोधसम्बन्धी उपयोग-अद्धास्थानोंका एक जीवके उदाहरण द्वारा सुखपूर्वक ज्ञान करानेके लिए जानना चाहिए । इसलिए एक जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण क्रोधसम्बन्धी उपयोग अद्धास्थानोंकी श्रेणिरूप से रचना करके उनमें नाना जीवोंके अवस्थानक्रमको दिखलानेके लिए 'नाना जीवोंका यवमध्य' यह वचन कहा है। एक जीवके विषयरूपसे निर्धारित किये गये उन अद्धास्थानों में नाना जीवोंका यत्रमध्यके आकाररूपसे अवस्थान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
$ २४७. अब इसी अर्थका कुछ स्पष्टीकरण करके बतलाते हैं । यथा— जघन्य उपयोगअद्धास्थान में जीव असंख्यात जगच्छू णिप्रमाण होते हैं । दूसरे भी उपयोग अद्धास्थानमें जीव असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण ही होते हैं । यद्यपि इतने होते हैं तो भी जघन्य स्थानके जीवोंकी संख्यामें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने अधिक होते हैं । फिर भी इस विधिसे प्रत्येक स्थानके प्रति विशेष अधिकरूपसे जीवोंका प्रमाण लाते हुए भागहारप्रमाण उपयोग - अद्धास्थानोंके जानेपर वहाँके उपयोग- अद्धास्थानोंमें जो जीव
१. ता०प्रतौ फुडीकारणं इति पाठः । २. ता० प्रतौ गच्छमाण इति पाठः ।