Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 358
________________ ३०७ गाथा ९९ ] दसणमोहोवसामणां (४७) मिच्छत्तवेदणीयं कम्म उवसामगस्स बोद्धव्वं । उवसंते आसाणे तेण परं होइ भजियव्वो ॥१९॥ $ १९८. एदेण गाहासुत्तेण दंसणमोहोवसामगस्स जाव अंतरपवेसो ण होइ ताव णियमा मिच्छत्तकम्मोदओ होइ । तत्तो परमुवसमसम्मत्तकालब्भंतरे तदुदओ गत्थि चेव । उवसमसम्मत्तकाले णिट्ठिदे पुण मिच्छत्तोदयस्स भयणिजत्तमिदि । एदेण तिण्णि अत्थविसेसा परूविदा । तं जहा–'मिच्छत्तवेदणीयं कम्म' एवं भणिदे मिच्छत्तं वेदिआदि जेण कम्मेण तं मिच्छत्तवेदणीयं कम्ममुदयावत्थाविसेसिदमुवसामगस्स णियमा होदि ति णायव्वमिदि गाहापुव्वद्धे पदसंबंधो, तेण मिच्छत्तकम्मोदयो दंसण अन्तिम समय तक इस कालमें कौन उपयोग होता है, योग कौन होता है और लेश्या कौन होती है इन तथ्योंका इस गाथामें विचार करते हुए बतलाया है कि दर्शनमोहके उपशमनविधिके प्रस्थापकका प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल तक साकार उपयोग होता है, क्योंकि दर्शनोपयोग अविचारस्वरूप होनेसे उसके प्रारम्भमें इसकी प्रवृत्ति नहीं बन सकती। उसके बाद मध्यकी और अन्तको अवस्थामें यह यथासम्भव दर्शनोपयोगी भी हो जाता है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि दर्शनमोहके उपशमनाके कालसे मति-श्रतज्ञानका काल अल्प है, अतएव बीच में अनाकार उपयोग हो जाता है । परन्तु ऐसा होनेपर भी उपयोगका आलम्बन जीव पदार्थ ही रहता है, क्योंकि इसकी सन्मुखतामें ही दर्शनमोहका उपशम होकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि दर्शनमोहका उपशामक जीव नियमसे जागृत होता है, क्योंकि सुप्त अवस्थामें इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। योगकी अपेक्षा विचार करने पर इसके दस पर्याप्त योगोंमेंसे यथासम्भव कोई भी योग होता है । लेश्या कम से कम मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके पीत लेश्याका जघन्य अंश होता है। इससे नीचे की अन्य अशभ लेश्याएं नहीं होतीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। देवों और नार पर्य है। देवों और नारकियों अवस्थित लेश्याके रहते हुए भी दर्शनमोहका उपशम होकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव है इसलिए पूर्वोक्त लेश्याका नियम तिर्यञ्चों और मनुष्योंकी अपेक्षा यहाँ किया गया है ऐस यहाँ उा चाहिए। दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके मिथ्यात्वकर्मका उदय जानना चाहिए । किन्तु दर्शनमोहकी उपशान्त अवस्थामें मिथ्यात्व कर्मका उदय नहीं होता, तदन्तर उसका उदय भजनीय है ॥५-९९॥ $ १९८. इस गाथासूत्रद्वारा यह बतलाया गया है कि दर्शनमोहके उपशामक जीवका जबतक अन्तर प्रवेश नहीं होता है तबतक उसके मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है। उसके बाद उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर मिथ्यात्वका उदय नहीं ही होता। परन्तु उपशमसम्यक्त्वके कालके समाप्त होनेपर मिथ्यात्वका उदय भजनीय है। इसप्रकार इस गाथासूत्र द्वारा तीन अर्थविशेष कहे गये हैं। यथा-'मिच्छत्तवेदणीयं कम्म' ऐसा कहने पर जिस कर्मके द्वारा मिथ्यात्व वेदा जाता है वह मिथ्यात्व वेदनीय कर्म उदय अवस्थासे युक्त उपशामकके नियमसे होता है ऐसा जानना चाहिए, इसप्रकार गाथाके पूर्वार्धका पदसम्बन्ध है,

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