Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 369
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० $ २०७. संपहि दंसणमोहोव सामणासंबंधेण दंसणमोहणीयस्स कम्मस्स कदमम्मि अवत्थाविसेसे कथं संकमो होइ ण होइ ति एत्थ एवंविहस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमुवणं ३१८ (५३) कम्माणि जस्स तिण्णि दु णियमा सो संकमेण भजियव्वो एयं जस्स दु कम्मं संकमणे सो ण भजियव्वो ॥ १०६ ॥ 1 हैं तथा जो सादि मिध्यादृष्टि द्वितीयादि बार सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्वको प्राप्त करने के अनन्तर पूर्व पिछली अवस्था में कौनसा भाव होता है इसका विधान किया गया है । गाथा पूर्वार्ध में 'अनंतरं पच्छदो' पाठ आया है तथा उत्तरार्ध में मात्र 'पच्छदो' शब्द आया है । इनमें से 'अणंतरं' पाठ तो ऐसा है जिसे अन्य पदके साथ विवक्षित भावसे आंगेके भावको सूचित करनेके लिये भी लागू किया जा सकता है और अन्य पदके साथ विवक्षित भावसे पिछले भावको सूचित करनेके लिये भी लागू किया जा सकता है। जैसे 'अनन्तर पिछला' कहने से अव्यवहित पूर्व पिछले भावका ग्रहण होता है और 'अनन्तर उत्तर' कहनेसे अव्यवहित उत्तर भावका ग्रहण होता है । 'अनन्तर' पद स्वयं न तो पिछले भावको सूचित करता है और न ही उत्तर भावको । अतः प्रकृतमें 'पच्छदो' पाठका क्या अर्थ है इसका आगममें प्रयुक्त हुए 'पच्छ' तथा 'पच्छिम' शब्दोंका वहाँ जो अर्थ लिया गया है उसे ध्यानमें रख कर विचार होना चाहिए | इसके लिये सर्व प्रथम हम तीन आनुपूर्वियोंको लेते हैं। इनमें एक 'पच्छाणुपुब्वी' भी है । इस द्वारा गणना करनेपर अन्तिम भावसे गणनाक्रमसे पिछले भाव लिये जाते हैं । यहाँ 'पच्छ' शब्द गणनाक्रम से आगेके भावोंकी अपेक्षा पिछले भावोंको सूचित करता है । उसी प्रकार प्रकृतमें भी 'अनंतरं पच्छदों' का अर्थ करने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्वसे अव्यवहितपूर्व पिछले भावका ही ग्रहण होगा। इससे यह अर्थ सुतरां फलित हो जाता है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व से अव्यवहित पूर्व पिछले समय में एकमात्र मिथ्यात्व भाव ही होता है । प्रथमोपशमके बाद कौन भाव होता है इसका सूचन करना इस गाथाका तात्पर्य नहीं है । इसका सूचन गाथा क्रमांक १०३ में पहले ही सूत्रकार कर आये हैं । तथा 'पच्छिम' शब्दको ध्यान में रख कर विचार करने पर भी यही अर्थ फलित होता है । उदाहरणार्थ जयधवला पु० ६ पृ० १६७ और २८३ के चूर्णिसूत्रों पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उन सूत्रोंमें 'अन्तिम' अर्थको सूचित करनेके लिये 'अपच्छिम' शब्दका प्रयोग हुआ है, 'पच्छिम' शब्दका नहीं। स्पष्ट है कि 'पच्छिम' शब्द विवक्षित भावसे पिछले भावको ही सूचित करता है। उक्त गाथामें आये हुए 'पच्छदो' शब्दका भी यही आशय लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । $ २०७. अब दर्शनमोहकी उपशामनाके सम्बन्धसे दर्शनमोहनीय कर्मका किस अवस्थाविशेष में किस प्रकार संक्रम होता है अथवा नहीं होता है इसप्रकार इस अर्थविशेषका स्पष्टीकरण करनेके लिए आगेका गाथासूत्र आया है जिस जीवके दर्शनमोहके तीन या दो कमें सत्तामें होते हैं वह नियमसे संक्रमकी अपेक्षा भजनीय है । किन्तु जिस जीवके एक ही कर्म सत्तामें होता है वह संक्रमकी अपेक्षा भजनीय नहीं है ।। १२-१०६ ।।

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