Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 372
________________ गाथा १०७ ] दंसणमोहोव सामणा (५४) सम्माइट्ठी सद्दहदि पवयणं णियमसा दु उवइट्ठ ं । सहदि अभाव अजाण माणो गुरुणिओगा ॥ १०७॥ $ २१०. एदस्स सम्माइट्ठिलक्खणविहाणद्रुमवइण्णस्स गाहासुत्तस्स अत्थविवरणं कस्साम । तं जहा — सम्माइट्ठी जो जीवो सो नियमसा दु णिच्छएणेव पवयणमुवइडुं सद्दहदि ति गाहापुव्वद्धे पदाहिसंबंधो । तत्थ पवयणमिदि वृत्ते पयरिसजुत्तं वयणं पवणं सव्वusोवएसो परमागमो ति सिद्धंतो त्ति एयट्ठो, तत्तो अण्णदरस्स पयरिसजुत्तस्स वयणस्साणुवलंभादो । तदो एवंविहं पवयणमुवइटुं सम्माइट्ठी जीवो णिच्छएण सद्दहइ ति सुत्तत्थसमुच्चओ । 'सहहह असम्भावं ' एवं भणिदे असन्भूदं पि अत्थं सम्माइट्ठी जीवो गुरुवयणमेव पमाणं काढूण सयमजाणमाणो संतो सद्दहदि ति भणिदं होदि । एदेण आणासम्मत्तस्स लक्खणं परूविदमिदि घेत्तव्वं । कथं पुनरसद्भूतमर्थ - मज्ञानात् प्रतिपद्यमानः सम्यग्दृष्टिरिति चेत् ? न, परमागमोपदेश एवायमित्यध्यवसायेन तथा प्रतिपद्यमानस्यानवबुद्धपरमार्थस्यापि तस्य सम्यग्दृष्टित्वाप्रच्युतेः । यदि पुनः सूत्रान्तरेणाविसंवादिना समयविद्भिर्याथात्म्येन प्रज्ञाप्यमानमपि तमर्थमसद्ग्रहान्न श्रद्धान करता है । तथा स्वयं न श्रद्धान करता है ।। १०७ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव उपदिष्ट प्रवचनका नियमसे जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भूत अर्थका भी ३२१ $ २१०. सम्यग्दृष्टिके लक्षणका कथन करनेके लिये आये हुए इस गाथासूत्रके अर्थका कथन करेंगे । यथा—जो सम्मदृष्टि जीव है वह 'णियमसा' निश्चय से ही उपदिष्ट प्रवचनका श्रद्धान करता है इसप्रकार गाथाके पूर्वार्ध में पदोंका सम्बन्ध है । उनमेंसे 'पवणं' ऐसा कहने पर उसका अर्थ है - प्रकर्ष युक्त वचन । प्रवचन अर्थात् सर्वज्ञका उपदेश, परमागम और सिद्धान्त यह एकार्थवाची शब्द हैं, क्योंकि उससे अन्यतर प्रकर्षयुक्त वचन उपलब्ध नहीं होता । अतः इस प्रकार के उपदिष्ट प्रवचनका सम्यग्दृष्टि जीव निश्चयसे श्रद्धान करता इस प्रकार सूत्रार्थका समुच्चय है । 'सहहइ असम्भाव' ऐसा कहने पर असद्भूत अर्थका भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचनको ही प्रमाण करके स्वयं नहीं जानता हुआ श्रद्धान करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस गाथासूत्र वचन द्वारा आज्ञा सम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । शंका—अज्ञानवश असद्भूत अर्थको स्वीकार करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? समाधान — यह परमागमका ही उपदेश है ऐसा निश्चय होनेसे उस प्रकार स्वीकार करनेवाले उस जीवको परमार्थका ज्ञान नहीं होने पर भी सम्यग्दृष्टिपनेसे च्युति नहीं होती । यदि पुनः कोई परमागमके ज्ञाता विसंवाद रहित दूसरे सूत्र द्वारा उस अर्थार्थ १ ता० प्रती पयरिमंजुत्तं इति पाः । ४१

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