Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 370
________________ गाथा १०६ ] दंसणमोहोवसामणा ३१९ $ २०८. अस्य गाथासूत्रस्यार्थ उच्यते— जस्स जीवस्स तिणि कम्माणि मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसण्णिदाणि, 'दु' सद्देण दोण्णि वा मिच्छत्त-सम्मत्ताणमण्णदरेण विणा जस्सत्थि सो णियमा णिच्छएण संकमेण भजियव्वो, सिया दंसणमोहस्स संकामओ होइ, सिया च ण होइ ति तत्थ भयणाए फुडमुवलंभादो । तं जहा – मिच्छाइट्ठि-सम्माहट्ठीसु तिण्णि संतकम्माणि होदूण दोन्हं संक्रमो भवदि, सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताणं च जहाकमं तत्थ संकंतिदंसणादो । पुणो सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइडीसु तिण्णि संतकम्माणि होदूण तत्थेगस्स विदंसणमोहम्मस्स संकमो त्थि, तत्थ तस्संकमणसत्तीए अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो । तहा सम्मत्तमुव्वेल्लेमाणस्स जाघे आवलियपविहं ताघे मिच्छाइट्ठिस्स तिणि संतकम्माणि होगस्सेव संकमो होइ । मिच्छत्तं वा खविजमाणं जाघे उदयावलियबाहिरं सव्वं खविदं ताघे सम्मादिट्ठिम्मि तिन्हं संतकम्मं होणेक्कस्सेव संकमो होइ । एदेण कारणेण दंसणमोहणीयस्स तिविहसंतकम्मिओ सिया दोन्हं एक्किस्से वा संकामओ होइ, सिया कस्स वि संकामओ त्ति भयणीयत्तं सिद्धं । $ २०९. संपहि दुविहसंतकम्मियस्स संकमावेक्खाए भयणिजत्तं वुच्चदे, खविदमिच्छत्त-वेदगसम्माइट्ठिम्मि सम्मत्तं वा उब्वेल्लेयूण ट्ठिदमिच्छाइट्टिम्मि दोणि संतकम्माण होणेकस्स संकमो भवदि जाव सम्मामिच्छत्त खविज्जमाणमुव्वेल्लिज्जमाणं $ २०८. अब इस गाथासूत्रका अर्थ कहते हैं - जिस जीवके मिथ्यात्व, सम्यक् सम्यग्मिथ्यात्व संज्ञावाले तीन कर्म तथा गाथामें पठित 'तु' शब्द द्वारा सूचित जिस जीवके मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इनमें से किसी एकके विना दो कर्म हैं वह 'णियमा' अर्थात् निश्चयसे संक्रमकी अपेक्षा भजितव्य है, कदाचित् दर्शनमोहका संक्रामक होता है और कदाचित् नहीं होता है इसप्रकार वहाँ भजितव्यपनेकी स्पष्टरूपसे उपलब्धि होती है । यथा - मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवोंमें तीन सत्कर्म होकर दोका संक्रम होता है, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मि - ध्यात्वका तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका वहाँ क्रमसे संक्रम देखा जाता है। किन्तु सासादनं सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में तीनों कर्मोंकी सत्ता होकर वहाँ एक भी दर्शनमोहनीय कर्मका संक्रम नहीं होता, क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों में संक्रमण शक्तिका अत्यन्त अभाव होनेसे वहाँ उनका संक्रमण प्रतिषिद्ध है । तथा उद्वेलना करनेवाले जीवके जब सम्यक्त्व उदयावलि में प्रविष्ट होता है तब मिथ्यादृष्टि जीवके तीन सत्कर्म होते हुए भी एकका ही संक्रम होता है। अथवा क्षयको प्राप्त होता हुआ उदयावलिके बाहर का सब मिथ्यात्व कर्म जब क्षयको प्राप्त हो जाता है तब सम्यग्दृष्टि जीवके तीन कर्मोंकी सत्ता होते हुए एकका ही संक्रम होता है। इस कारण से दर्शनमोहनी की तीन प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव कदाचित् दोका और कदाचित् एकका संक्रामक है तथा कदाचित् एकका भी संक्रामक नहीं होता, इसलिये भजनीयपना सिद्ध होता है। ६ २०९. अब दोकी सत्तावालेके संक्रमकी अपेक्षा भजनीयपनेका कथन करते हैंजिसने मिथ्यात्वका क्षय किया है ऐसे वेदक सम्यग्दृष्टि जीवके अथवा सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके स्थित हुए मिथ्यादृष्टि जीवके दो कर्मोंकी सत्ता होकर एकका संक्रम तबतक होता है।

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