Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 376
________________ गाथा १०९] दसणमोहोवसामणा ३२५ ग्रहणात् । 'सागारो होइ बोद्धव्वो' तदवस्थायां ज्ञानोपयोगपरिणत एव भवति न दर्शनोपयोगपरिणत इति यावत् । कुतोऽयं नियम इति चेत १ न, अनाकारोपयोगेन सामान्यमात्रावग्राहिणा पूर्वापरपरामर्शशून्येनार्थविचारानुपपत्तितस्तत्र तथाविधनियमोपपत्तेः । एत्थ सुत्तपरिसमत्तीए पण्णारसण्हमंकविण्णासो किमटुं कदो ? दंसणमोहोवसामणाए पडिबद्धाओ एदाओ पण्णारस चेव गाहाओ, णादिरित्ताओ चि जाणावणहूँ । * एसो सुत्तप्फासो विहासिदो। 5 २१३. एवमेसो सुत्तप्फासो गाहासुत्ताणं सरूवणिद्देसो विहासिदो परूविदो त्ति भणिदं होदि । संपहि एत्थुद्देसे पुव्वमविहासिदो अण्णो अत्थो दसणमोहोवसामणासंबंधिओ एदेहिं चेव गाहासुत्तेहिं सूचिदो अत्थि त्ति तप्पदुप्पायणमुत्तरसुत्तमोइण्णंगया है। 'सागारो होइ बोद्धन्वो' अर्थात् उस अवस्थामें ज्ञानापयोगसे परिणत ही होता है, दर्शनोपयोगसे परिणत नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका—यह नियम किस कारण है ? समाधान नहीं, क्योंकि सामान्यमात्रग्राही अनाकारोपयोग पूर्वापरपरामर्शसे शून्य है, अतः उस द्वारा अर्थविचारकी उत्पत्ति न हो सकनेके कारण अर्थविचारके समय उस प्रकारका नियम बन जाता है।। शंका-यहाँ पर सूत्रकी परिसमाप्ति होने पर '१५' अंकका विन्यास किसलिये किया है ? समाधान—क्योंकि दर्शनमोहकी उपशमनामें प्रतिबद्ध ये पन्द्रह हो गाथाएं हैं, अधिक नहीं इसे बातका ज्ञान करानेके लिये यहाँ सूत्रकी परिसमाप्ति होने पर '१५' अंकका विन्यास किया है। विशेषार्थ—यह दर्शनमोहकी उपशामनासे सम्बन्ध रखनेवाली अन्तिम गाथा है। इस द्वारा तीन अर्थोंको स्पष्ट किया गया है । १-सम्यग्मिथ्यात्व गुणकी प्राप्ति साकारोपयोगके कालमें भी सम्भव है और अनाकारोपयोगके कालमें भी सम्भव है। २-सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें क्रमसे साकार और अनाकार दोनों उपयोगोंकी प्राप्ति सम्भव है। इससे प्रतीत होता है कि इन दोनों उपयोगोंके कालसे सम्यग्मिध्यात्व गुणस्थानका काल अधिक है । ३यहाँ अर्थविचारके समय ज्ञानोपयोग ही होता है, दर्शनोपयोग नहीं । शेष कथन सुगम है। * इस प्रकार गाथासूत्रोंके स्वरूपका कथन किया। 5२१३ इस प्रकार यह सूत्रस्पर्श है अर्थात् गाथासूत्रोंका स्वरूपनिर्देश 'विहासिदो' अर्थात् कहा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब प्रकृतमें जिसका पहले व्याख्यान नहीं किया तथा जिसका इन गाथासून्नोंके द्वारा सूचन होता है ऐसा जो दर्शनमोहका उपशामनासम्बन्धी अन्य अर्थ है उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है १. ता. प्रतौ सुत्तप्फासो विहासिदो गाहासुत्ताणं इति पाठः ।

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