Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 374
________________ गाथा १०८] दसणमोहोवसामणा ___३२३ किं कारणमिदि चे ? दंसणमोहणीयोदयजणिदविवरीयाहिणिवेसत्तादो। तदो चेव 'सद्दहइ असब्भाव', असद्भुतमेवार्थमपरमार्थरूपमयं श्रद्दधाति मिथ्यात्वोदयादित्यर्थः । 'उवइ8 वा अणुवइटुं' उपदिष्टमनपदिष्टं वा दुर्मार्गमेष दर्शनमोहोदयाच्छद्दधातीति यावत् । एतेन व्युद्ग्राहितेतरभेदेण मिथ्यादृशो द्वैविध्यं प्रतिपादितमिति द्रष्टव्यं । उक्तं च मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदसणो होइ। ण य धम्म रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥ २॥ तं मिच्छत्तं जमसदहणं तच्चाण होइ अत्थाणं । संसइयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं ति तं तिविहं ॥ ३ ॥ इति । शंका-इसका क्या कारण है ? समाधान-क्योंकि वह दर्शनमोहनीयके उदयसे विपरीत अभिनिवेशवाला होता है। और इसीलिये 'सहहइ असब्भाव' अपरमार्थस्वरूप असद्भूत अर्थका ही मिथ्यात्वके उदयवश यह श्रद्धान करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'उवइह वा अणुवइह' अर्थात् उपदिष्ट या अनुपदिष्ट दुर्मार्गका ही दर्शनमोहके उदयसे यह श्रद्धान करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस गाथासूत्र वचन द्वारा व्यग्राहित और इतरके भेदसे मिथ्यादृष्टि के दो भेदोंका प्रतिपादन किया गया जानना चाहिए। कहा भी है मिथ्यात्वका अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला होता है। जैसे ज्वरसे पीड़ित मनुष्यको मधुर रस नहीं रुचता है वैसे ही उसे रत्नत्रय धर्म नहीं रुचता है॥२॥ __ जो जीवादि नौ तत्त्वार्थोंका अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है । संशयिक, अभिग्रहीत और अनभिग्रहीत इस प्रकार वह तीन प्रकारका है॥३॥ पार्थ—इस गाथासूत्रमें मिथ्यादृष्टि जीवके स्वरूपका निरूपण किया गया है। पहले 'प्रवचन शब्दके अर्थका स्पष्टीकरण कर आये हैं। जो सर्वज्ञदेवका उपदेश है वही प्रवचन कहलानेका अधिकारी है, अन्य नहीं। यतः मिथ्यादृष्टि जीव परमार्थके ज्ञानसे रहित होता है, अतः उसके प्रवचनका श्रद्धान किसी भी अबस्थामें नहीं बन सकता। वह कुमागियोंके द्वारा उपदिष्ट हो या अनुपदिष्ट हो, मिथ्या मार्गका अवश्य ही श्रद्धान करता रहता है, इसलिये उसे मिथ्या मार्ग ही रुचता है, सम्यग्मार्ग नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँ ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके तीन भेद किये गये हैं-संशयिक मिथ्यादृष्टि, अभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि और अनभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि । जीवादि नौ पदार्थ हैं या नहीं हैं इत्यादि रूपसे जिसका श्रद्धान दोलायमान हो रहा है वह संशयिक मिथ्यादृष्टि जीव है। जो कुमागियोंके द्वारा उपदेशे गये पदार्थोंको यथार्थ मान कर उनकी उस रूपमें श्रद्धा करता है वह अभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि जीव है और जो उपदेशके विना ही विपरीत अर्थकी श्रद्धा करता आ रहा है वह अनभिग्रहीत मिथ्यादृष्टि जीव है।

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