Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 375
________________ ३२४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सम्मत्ताणियोगदार १० (५६) सम्मामिच्छाइट्ठी सागारो वा तहा अणागारो। अध वंजणोग्गहम्मि दु सागारो होइ बोद्धव्वो ॥१५-१०९॥ $ २१२. सम्यग्मिथ्यादृष्टेलक्षणविधानं सुबोधमिति न तस्येह प्ररूपणं क्रियते, किंतु तदुपयोगविशेषप्ररूपणार्थमेतत्सूत्रमारब्धं । तद्यथा-जो सम्मामिच्छाइट्ठी जीवो सागारोवजुत्तो वा होइ, अणागारोवजुत्तो वा, दोहिं मि' उवजोगेहि तग्गुणपडिवत्तीए विरोहाभावादो। एदेण दंसणमोहोवसामणाए पयट्टमाणस्स पढमदाए जहा सागारोवजोगणियमो एवमेत्य पत्थि ति णियमो, किंतु दोहिं मि उवजोगेहिं सम्मामिच्छत्तगुणं पडिवज्जइ त्ति एसो अत्थविसेसो जाणाविदो । अधवा पडिवण्णसम्मामिच्छत्तगुणो सगकालभंतरे सागारोवजुत्तो वा होइ, अणागारोवजुत्तो वा ति सुत्तत्थो गहेयव्वो, णाण-दंसणोवजोगाणं दोण्हं पि तग्गुणकालब्भंतरे कमेण परावत्तणे विरोहाणुवलंभादो। एदेण गाण-दसणोवजोगकालादो सम्मामिच्छाइद्विगुणकालस्स बहुत्तं सूचिदमिदि दहव्वं । 'अध वंजणोग्गहम्हि दु' इच्चादि । अथेति पादपूरणार्थो निपातः वंजणोग्गहम्मि दु, विचारपूर्वकार्थग्रहणावस्थायामित्यर्थः। व्यंजनशब्दस्यार्थविचारवाचिनो सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव साकारोपयोगवाला भी होता है तथा अनाकारोपयोगवाला भी होता है। किन्तु व्यञ्जनावग्रहमें अर्थात् विचारपूर्वक अर्थ ग्रहणकी अवस्थामें वह साकारोपयोगवाला ही होता है ऐसा यहाँ जानना चाहिए ॥ १०९-१५ ॥ २१२. सम्यग्मिध्यादृष्टिके लक्षणका कथन सुबोध है, इसलिये उसका यहाँ पर कथन नहीं करते हैं, किन्तु उसके उपयोग विशेषोंका कथन करनेके लिये इस सूत्रका प्रारम्भ किया है। यथा-जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है वह या तो साकार उपयोगवाला होता है या अनाकार उपयोगवाला होता है, क्योंकि दोनों ही उपयोगोंके साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुणकी प्राप्ति होनेमें विरोधका अभाव है। इस वचन द्वारा दर्शनमोहकी उपशामनामें प्रवृत्त हुए जीवके प्रथम अवस्था में जिस प्रकार साकारोपयोगका नियम है उस प्रकार यहाँ पर नियम नहीं है। किन्तु दोनों ही उपयोगोंके साथ सम्यग्मिथ्यात्वगुणको प्राप्त होता है इस प्रकार इस अर्थ विशेषका ज्ञान कराया गया है। अथवा जिसने सम्यग्मिथ्यात्व गुणको प्राप्त किया है वह अपने कालके भीतर साकार उपयोगसे उपयुक्त होता है या अनाकार उपयोगसे उपयुक्त होता है इस प्रकार सूत्रार्थको प्रहण करना चाहिए, क्योंकि ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग इन दोनोंके ही उस गुणके कालके भीतर क्रमसे परिवर्तन होनेमें कोई विरोध नहीं उपलब्ध होता। इससे ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके कालसे सम्यग्मिथ्यात्व गुणका काल बहुव सूचित किया गया है ऐसा जानना चाहिए। 'अध वंजणोग्गहम्हि दु'। यहाँ 'अर्थ' यह पादपूर्तिके लिये निपात है। 'वंजणोग्गह म्हि दु' अर्थात् विचारपूर्वक अर्थ ग्रहणकी अवस्थामें यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि प्रकृतमें व्यञ्जन शब्द अर्थविचारवाची ग्रहण किया १. ता. प्रत्स दोहिम्हि ( हिं पि ) इति पाठः ।

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