Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 371
________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दार १० वा अणावलियपविट्ठति आवलियपविट्ठसम्मामिच्छत्तस्स वुण सम्माइडिस्स मिच्छाइटिस्स वा दुविहसंतकम्मियस्स एक्कस्स वि संकमो णत्थि । तदो एत्थ वि संकमेण भयणिजत्तं सिद्धं । 'एयं जस्स दु कम्म' एवं भणिदे जस्स सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइडिस्स वा खवणुव्वेन्लणावसेण सम्मत्त वा मिच्छत्तं वा एक्कमेव संतकम्मवसिटुं ण सो संक्रमण भयणिज्जो, संकमभंगस्स तत्थ अच्चंताभावेण असंकामगो चेव सो होइ ति भणिदं होइ। जबतक क्षयको प्राप्त होता हुआ या उद्वलनाको प्राप्त होता हुआ सम्यग्मिथ्यात्व कर्म उदयावलिमें प्रविष्ट नहीं हुआ है। किन्तु जिसके सम्यग्मिथ्यात्व कर्म उदयावलिमें प्रविष्ट हो जाता है ऐसे दो प्रकारके कर्मोकी सत्तावाले सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके एकका भी संक्रम नहीं होता, इसलिये यहाँ पर भी संक्रमकी अपेक्षा भजनीयपना सिद्ध हुआ। 'एयं जस्स दु कम्म' ऐसा कहने पर जिस सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके झपणावश और उद्वलनावश क्रमसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्व एकही सत्कर्म शेष रहता है वह संक्रमकी अपेक्षा भजनीय नहीं है, क्योंकि उसके संक्रमरूप विकल्पका अत्यन्त अभाव होने से वह असंक्रामक ही होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ—इस गाथासूत्रमें दर्शनमोहनीयकी तीन, दो या एक कर्मकी सत्तावाले जीवके कहाँ कितनेका संक्रम होता है या नहीं होता है इसका विचार किया गया है। यहाँ टीका में यह सब विस्तारसे स्पष्ट किया ही है, इसलिये यहाँ मात्र कोष्टक दे देना चाहते हैं। यथास्वामी संक्रम या असंक्रम १ मिथ्यादृष्टि ३ की सत्ता २ का-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम , (सम्यक्त्व उदयावलिप्रविष्ट १का-सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम सम्यक्व विना २ की सत्ता , (सम्यग्मिथ्यात्व उ. आ. प्र.) संक्रम नहीं १ मिथ्यात्वकी सत्ता ६ सासादन ३ को सत्ता ७ सम्यमिथ्यादृ० सम्यग्दृष्टि २का-मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सं० १का-सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रम मिथ्यात्व विना दो को सत्ता २ की सत्ता (सम्यग्मिथ्यात्व आ.प्र.) संक्रम नहीं १ सम्यक्त्वकी सत्ता १. ता०प्रतो आवलियपविट्ठ इति पाठः । सत्ता " .

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