Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 367
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सम्मत्ताणियोगहारं १० विपकिट्ठतरेण सम्मत्तमुप्पाएइ सो वि सव्वोवसमेणेव सम्मत्तं समुप्पाएदि । तदण्णो पुण देस-सव्वोवसमेहिं भजियव्वो त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स णिण्णयविहाणट्ठमुत्तरं गाहासुत्तमुवइ8 (५१) सम्मत्तपढमलंभो सब्वोवसमेण तह विय?ण। . भजियव्वो य अभिक्खं सव्वोवसमेण देसेण ॥१०४॥ ६ २०५ जो सम्मत्तपढमलंभो अणादियमिच्छाइट्ठिविसओ सो सव्वोवसमेणेव होइ, तत्थ पयारंतरासंभवादो । 'तह वियद्वेण' मिच्छत्तं गंतूण जो बहुअं कालमंतरिदण सम्मत्तं पडिवज्जइ सो वि सव्वोवसमेणेव पडिवज्जइ। एदस्स भावत्थी-सम्मत्तं घेत्तूण पुणो मिच्छत्तं पडिवज्जिय सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदूण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तकालेण वा अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तकालेण वा जो सम्मत्तं पडिवाइ, सो वि सव्वोवसमेणेव पडिवाइ त्ति भणिदं होइ । 'भजियव्वो य अभिक्खं' जो पुण सम्मत्तादो परिवडिदो संतो लहुमेव पुणो पुणो सम्मत्तग्गहणाभिमुहो होइ सो सव्योवसमेण वा देसोवसमेण वा सम्मत्तं पडिवज्जइ । किं कारणं ? जइ वेदगपाओग्गकाल भतर चेव सम्मत्तं पडिवज्जइ तो देसोवसमेण अण्णहा वुण सव्वोवसमेण पडिवजह मिथ्यादृष्टि जीव भी विप्रकृष्ट अन्तरसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है वह भी सर्वोपशमद्वारा ही सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। उससे अन्य जीव तो देशोपशम और सर्वोपशमरूपसे भजनीय है इस तरह इस प्रकारके अर्थविशेषका निर्णय करनेके लिए आगेके गाथासूत्रका उपदेश दिया है सम्यक्त्वको प्रथम लाभ सर्वोपशमसे ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीवके द्वारा भी सम्यक्त्वका लाभ सर्वोपशमसे ही होता है। किन्तु शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव सर्वोपशम और देशोपशमसे भजनीय है ॥ १०-१०४ ॥ २०५. जो अनादि मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वका प्रथम लाभ होता है वह सर्वोपशमसे ही होता है, क्योंकि उसके अन्य प्रकारसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । 'तह विय?ण' अर्थात् मिथ्यात्वको प्राप्त कर जो बहुत कालका अन्तर देकर सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशमसे ही प्राप्त करता है। इसका भावार्थ-सम्यक्त्वको ग्रहण कर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण कालद्वारा या अर्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालद्वारा जो सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशमसे ही प्राप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'भजियव्यो य अभिक्खं' अर्थात् जो सम्यक्त्वसे पतित होता हुआ शीघ्र ही पुनः पुनः सम्यक्त्वके ग्रहणके अभिमुख होता है वह सर्वोपशमसे अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, क्योंकि यदि वह वेदक प्रायोग्य कालके भीतर ही सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तो देशोपशमसे अन्यथा सर्वोपशमसे

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