Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 359
________________ ३०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगद्दारं १० मोहोवसामगस्स णियमा होइ ति सुत्तत्थो गहेयव्वो । उदयविसेसणं सुत्तेणाणुवइ8 कथमुवलब्भदि त्ति णासंकणिज्जं, अत्थवसेणेव तहाविहविसेसणस्सत्थसमुवलद्धीदो। अथवा वेद्यत इति वेदनीयं मिथ्यात्वमेव वेदनीयं मिथ्यात्ववेदनीयं उदयावस्थापरिणतं मिथ्यात्वकर्मेति यावत् । तदुपशमकस्य भवतीति सूत्रोपात्तमेव तद्विशेषणमवगंतव्यम् । 'उवसंते आसाणे' एवं भणिदे दंसणमोहणीये उवसंते उवसमसम्मादिद्वित्तमुवगयस्स मिच्छत्तवेदणीयकम्मोदयस्स आसाणमेव विणासो चेव । किं कारणं ? अंतरपवेसावत्थाए तदुदयस्स अच्चंताभावेण णिसिद्धत्तादो तदणुदयस्सेव उवसंतभावेणेत्थ विवक्खियत्तादो च । अधवा उवसंते उवसमसम्मत्तकालब्भंतरे आसाणे सासणकालब्भंतरे च मिच्छत्तकम्मोदयो पत्थि चेवे त्ति वक्कसेसवसेण सुत्तत्थसंबंधो कायव्यो । 'तेण परं होइ भजियव्वो' एवं भणिदे उवसमसम्मत्तद्धाए समत्ताए तत्तो परं मिच्छत्तकम्मोदएण एसो भजियव्वो, मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमण्णदरोदयस्स तत्थाविरोहादो। इसलिये मिथ्यात्व कर्मका उदय दर्शनमोहके उपशामकके नियमसे होता है इसप्रकार सूत्रका अर्थ ग्रहण करना चाहिए। शंका-सूत्रद्वारा अनुपदिष्ट उदय विशेषण कैसे उपलब्ध होता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अर्थके सम्बन्धसे ही उस प्रकारके विशेषणकी यहाँ पर उपलब्धि होती है। अथवा जो वेदा जाय वह वेदनीय है। मिथ्यात्व ही वेदनीय मिथ्यात्व वेदनीय है। उदय अवस्थासे परिणत मिथ्यात्व कर्म यह इसका तात्पर्य है। वह उपशम करनेवाले जीवके होता है इसप्रकार उक्त विशेषण सूत्रोक्त ही जानना चाहिए । 'उससंते आसाणे' ऐसा कहनेपर दर्शनमोहनीयके उपशान्त अवस्थामें उपशमसम्यग्दृष्टिपनेको प्राप्त हुए जीवके मिथ्यात्व वेदनीयकर्मके उदयका आसान ही अर्थात् विनाश ही रहता है, क्योंकि अन्तर प्रवेशरूप अवस्थामें उसके उदयका अत्यन्ताभाव होनेसे उसका उदय निषिद्ध ही है तथा उसका अनुदयही उपशान्तरूपसे यहाँ पर विवक्षित है । अथवा 'उवसंते' अर्थात् उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर तथा 'आसाणे' अर्थात् सासादन कालके भीतर मिथ्यात्वकमका उदय नहीं ही है इसप्रकार वाक्य शेषके वशसे सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिए । 'तेण परं होइ भजियव्वो' ऐसा कहनेपर उपशम सम्यक्त्वके कालके समाप्त होनेपर |तदनन्तर मिथ्यात्व कर्मके उदयसे यह भजनीय है, क्योंकि मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें से अन्यतरके उदयका वहाँ विरोध नहीं पाया जाता। विशेषार्थ-इस गाथासूत्रद्वारा तीन अर्थ स्पष्ट किये गये हैं। प्रथम अर्थको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि जो मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन मोहका उपशम करता है उसके मिथ्यात्वका उदय नियमसे होता है। दूसरे अर्थको स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि उपशमसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वकर्मका उदय नहीं होता । यहाँ गाथामें 'उवसंते आसाणे' पाठ है । तदनुसार 'आसाण' अवसान पाठका पर्यायरूप होनेसे विनाश अर्थ करके उक्त अर्थ फलित किया गया है। अथवा 'उवसंते आसाणे' इसका अर्थ उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादन करने पर १. ता०प्रत्सै अथवा इति पाठो नास्ति ।

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