Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 364
________________ गाथा १०२] दसणमोहोवसामणा दंसणमोहणीयस्स बंधो होई, तेण विणा सेसपच्चएहिं तब्बंधो पत्थि त्ति जाणावण?मुत्तरगाहासुत्तावयारो(४९) सम्मामिच्छाइट्ठी दसणमोहस्सऽबंधगो होइ। वेदयसम्माइट्ठी खीणो वि अबंधगो होइ ॥१०२॥ ६२०३. मिच्छाइट्ठी चेव दंसणमोहणीयस्स मिच्छत्तपच्चएण बंधगो होइ, णाण्णो। तेण सम्मामिच्छाइट्ठी वा वेदयसम्माइट्ठी वा खइयसम्माइट्ठी वा, अविसद्देण उवसमसम्माइट्टी वा सासणसम्माइट्ठी वाणियमा दंसणमोहस्स अबंधगो होदि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसमुच्चयो घेत्तव्वो। अधवा जहा मिच्छाइट्ठी मिच्छत्तोदएण मिच्छत्तस्सेव बंधगो होदि त्ति भणिदो, किमेवं सम्मामिच्छाइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी च सम्मामिच्छत्त-वेदगसम्मत्ताणमुदएण ताणि चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि जहारिहं बंधइ आहो ण बंधदि त्ति भणिदे ताणि ण बंधदि त्ति जाणावणट्ठमेदं गाहासुत्तमवइण्णमिदि वक्खाणेयध्वं, सम्मामिच्छाइहि-वेदगसम्माइट्ठीसु दंसणमोहणीयबंधाभावस्स मुत्तकंठमिहोवइद्वत्तादो । णवरि 'खीणो वि अबंधगो होदि' त्ति एदं पदं खइयसम्माइडिम्मि दंसणमोहणीयबंधाबन्ध मिथ्यात्वके निमित्तसे ही होता है, उसके बिना शेष कारणोंसे दर्शनमोहनीयका बन्ध नहीं होता इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेके गाथासूत्रका अवतार हुआ है सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका अबन्धक होता है। तथा वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा 'अपि शब्द द्वारा परिगृहीत उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव भी दर्शनमोहनीयका अबन्धक होता है । ८-१०२। २०३. मिथ्यादृष्टि जीव ही दर्शनमोहनीयका मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्धक होता है, अन्य नहीं। इससे सम्यग्मिथ्यादृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा 'अपि' शब्दसे उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि दर्शनमोहका नियमसे अबन्धक होता है इस प्रकार यह सूत्रार्थका समुच्चय ग्रहण करना चाहिए। अथवा जिस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वके उदयसे मिथ्यात्वका ही बन्धक होता है ऐसा कहा है उसी प्रकार क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव.सम्यग्मिथ्यात्व और वेदकसम्यक्त्वके उदयसे उन्हीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको यथायोग्य बाँधता है या नहीं बाँधता ऐसा प्रश्न करने पर नहीं बांधता इस बातका ज्ञान करानेके लिये यह गाथासूत्र अवतीर्ण हुआ है ऐसा व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें दर्शनमोहनीयके बन्धके अभावका मुक्तकण्ठ होकर इस गाथासूत्र में उपदेश दिया गया है । इतनी विशेषता है कि 'खीणो वि अबंधगो होदि' इस प्रकार इस पदका प्रयोजन झायिकसम्यग्दृष्टिके दर्शनमोहनीय १. ता०प्रत्स बंधो होइ इतोऽने 'मिच्छाइट्टी चेव दसणमोहणीयस्स मिच्छत्तपच्चयेण बंधणो होई' अयं पाठः समुपलभ्यते। २. ता०प्रत्स-णतृगाहासुत्तावयारो इति पाठः । २. ता०प्रतो 'चेव' इति पाठो नास्ति ।

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