Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 361
________________ ३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [सम्मत्ताणियोगदारं १० द्विदिपजंतेसु होइ, गाण्णस्सो' त्ति भणिदं होदि । मिच्छत्तस्स ताव सव्वघादिविट्ठाणिओ घादिदसेसो अणुभागो सव्वेसु. ट्ठिदिविसेसेसु अविसिट्टसरूवेणावट्टिदो दट्टयो। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि णवरि मिच्छत्ताणुभागादो अणंतगुणहीणो । सम्मत्तस्स पुण तत्तो वि अणंतगुणहीणो देसघादिविट्ठाणसरूवो दारुअसमाणाणंतभागावट्ठाणो उक्कस्साणुभागो एयवियप्पो सव्वत्थ होदि त्ति घेत्तव्वं । $२००. संपहि सणमोहणीयमुवसामेमाणस्स तदवत्थाए किंपच्चएण णाणावरणादिकम्मबंधो होदि ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स णिद्धारणट्ठमुवरिमगाहासुत्तमोइण्णंवही उससे उपरिम उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समस्त स्थितिविशेषों में होता है वह अन्य नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मिथ्यात्वका तो घात करनेसे शेष रहा सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग सब स्थिति विशेषोंमें अवस्थितरूपसे अवस्थित जानना चाहिए। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अनुभागसे यह अनन्तगुणा हीन होता है। सम्यक्त्वका अनुभाग तो उससे भी अनन्तगुणा हीन होता है, जो देशघाति द्विस्थानीय स्वरूप होकर दारुसमान अनुभागके अनन्तवें भागरूपसे अवस्थित उत्कृष्ट स्वरूप एक प्रकारका सर्वत्र होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। विशेषार्थ-इस गाथासूत्र में दर्शनमोहनीयकी तीनों कर्म प्रकृतियोंकी उपशान्त अवस्थामें क्या व्यवस्था रहती है यह स्पष्ट किया गया है। अकेले मिथ्यात्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व या तीनों कर्म प्रकृतियोंकी प्रथम स्थितिके गल जानेके अनन्तर समयमें जीवके अन्तरायाममें प्रवेश करनेपर उक्त तीनों प्रकृतियोंकी अन्तरायामके ऊपर द्वितीय स्थितिमें अपने-अपने स्थितिविशेषोंके साथ जितनी स्थिति प्राप्त होती है वह सब उपशान्त रहती है अर्थात् प्रथमोपशमके कालके अन्तिम समय तक उदयके अयोग्य रहती है। यहाँ मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका संक्रमण तो होता है पर उन स्थितिविशेषोंकी अपकर्षणपूर्वक उदीरणा नहीं होती यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अनुभाग उन तीनों प्रकृतियोंके अपने-अपने स्थितिविशेषों में अपने-अपने योग्य द्विस्थानीय एक प्रकारका होता है। अर्थात मिथ्यात्व का घात करनेसे शेष बचा सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग सब स्थितिविशेषोंमें समान होता है। अन्तरायामके ऊपर प्रथम जघन्य स्थितिमें जो सर्वघाति द्विस्थानीय अनुभाग होता है वही उससे ऊपरकी मिथ्यात्वसम्बन्धी अन्य सब स्थितियोंमें होता है। सम्यग्मिथ्यात्वके सब स्थितिविशेषोंमें भी इसीप्रकार एक प्रकारका द्विस्थानीय सर्वघाति अनुभाग होता है। किन्तु वह मिथ्यात्वके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है। सम्यक्त्व प्रकृति देशघाति है, इसलिये उसके सब स्थिति विशेषोंमें देशघाति द्विस्थानीय एक प्रकारका अनुभाग होकर भी वह सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है। साथ ही यह उत्कृष्ट होता है। यह सब उक्त गाथाका तात्पर्य है। ___5२००. अब दर्शनमोहनीयका उपशम करनेवाले जीवके उस अवस्थामें ज्ञानावरणादि कर्मोंका बन्ध किंनिमित्तक होता है इसप्रकार इस अर्थविशेषका निर्धारण करनेके लिये आगेका गाथासूत्र आया है १. ता०प्रतौ णाण्णारिसो इति पाठः ।

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