Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 356
________________ गाथा ९८] दसणमोहोवसामणा ३०५ मण्णदरो सागारोवजोगो चेव एदस्स होइ, णाणागारोवजोगो त्ति घेत्तव्वं । एदेण जागरावत्थापरिणदो चेव सम्मत्तप्पचिपाओग्गो होदि, णाण्णो चि एवं पि जाणाविदं, णिहापरिणामस्स सम्मत्तुप्पत्तिपाओग्गविसोहिपरिणामेहिं विरुद्धसहावत्तादो। एवं पट्टवगस्स सागारोवजोगत्तं णियामिय संपहि णिट्ठवग-मज्झिमावत्थासु सागराणागाराणमण्णदरोवजोगेण भयणिज्जत्तपदुप्पायणमिदमाह-णिट्ठवगो मज्झिमो य भजिदव्यो ।' एत्थ णिट्ठवगो त्ति भणिदे दंसणमोहोवसामणाकरणस्स समाणगो घेत्तव्यो। सो वुण कम्हि उद्देसे होदि त्ति पुच्छिदे पढमहिदि सव्वं कमेण गालिय अंतरपवेसाहिमुहावत्थाए होइ । सो च सागारोवजुत्तो वा अणागारोवजुत्तो वा होदि ति भजियव्वो, दोण्हमण्णदरोवजोगपरिणामेण णिट्ठवगत्ते विरोहाभावादो । एवं मज्झिमस्स वि वत्तव्वं । को मज्झिमो णाम ? पट्टवग-णिट्ठवगपज्जायाणमंतरालकाले पयट्टमाणो मज्झिमो त्ति भण्णदे, तत्थ दोण्हं पि उवजोगाणं कमपरिणामस्स विरोहाभावादो भयणिज्जत्तमेदमवगंतव्वं । 5 १९६. संपहि एदस्स चेव जोगविसेसावहारणमिदमाह-'जोगे अण्णदरम्हि है, इसलिए मति, श्रुत और विभंगज्ञानमेंसे कोई एक साकार उपयोग ही इसके होता है, अनाकार उपयोग नहीं होता ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। इस वचन द्वारा जागृत अवस्थासे परिणत जीव ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य होता है, अन्य नहीं इस बातका भी ज्ञान करा दिया है, क्योंकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य विशुद्धिरूप परिणामोंसे विरुद्ध स्वभाववाला है। इस प्रकार प्रस्थापकके साकारोपयोगपनेका नियम करके अब निष्ठापकरूप और मध्यम (बीचकी ) अवस्थामें साकार उपयोग और अनाकार उपयोग मेंसे अन्यतर उपयोगके साथ भजनीयपनेका कथन करनेके लिये यह वचन कहा है'णिट्रवगो मज्झिमो य भजिद-वो'। इस वचनमें निष्ठापक ऐसा कहने पर दर्शनमो शामनाकरणको समाप्त करनेवाला जीव लेना चाहिए। परन्तु वह किस अवस्थामें होता है ऐसा पूर र समस्त प्रथम स्थितिको क्रमसे गलाकर अन्तर प्रवेशकी अभिमुख अवस्थाके होनेपर होता है। और वह साकार उपयोगमें उपयुक्त होता है या अनाकार उपयोगमें उपयुक्त होता है, इसलिए भजनीय है, क्योंकि इन दोनोंमेंसे किसी एक परिणामके साथ निष्ठापकपनेके होनेमें विरोधका अभाव है। इसी प्रकार मध्यम अवस्थावालेके भी कहना चाहिए । शंका-मध्यम कौन है ? समाधान-प्रस्थापक और निष्ठापकरूप पर्यार्योंके अन्तराल कालमें प्रवर्तमान जीव मध्यम कहलाता है। वहाँ पर दोनों ही उपयोगोंका क्रमसे परिणाम होनेमें विरोधका अभाव होनेसे यह भजनीयपना जानना चाहिए। $ १९६. अब इसीके योग विशेषका निश्चय करनेके लिये यह कहते हैं-'जोगे ३९

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