Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 355
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० ३०४ (४५) सागारे पट्टवगो णिट्ठवगो मज्झिमो य भजियव्वो । जोगे अण्णदरम्हि य जहण्णगो तेउलेस्साए ॥ ६८ ॥ $ १९५. एदेण चउत्थगाहासुत्तेण दंसणमोहोवसामगस्स उवजोग-जोगलेस्सापरिणामगओ विसेसो पदुप्पादो दट्ठव्वो । तं जहा -- ' सागारे पट्ठवगो' एवं भणिदे दंसणमोहोवसामणमाढवेंतो अधापवत्तकरण पढमसमय पहुडि अंतोमुहुत्तमेतकालं पट्टवगो नाम भवदि । सो वुण तदवत्थाए णाणोवजोगे चेव उवजुत्तो होइ, तत्थ दंसणोवजोगस्सावीचारप्पयस्स पवृत्तिविरोहादो । तदो मदि- सुदविभंगणाणाण मरण भी नहीं होता । बिना व्याघातके यह जीव उसे सम्पन्न करता है । इस काल में ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो जाय यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि इस जीवके इस काल के भीतर अनन्तानुबन्धीचतुष्क में से किसी एकके उदयके साथ सदा काल मिथ्यात्वका उदय बना रहता है ऐसा नियम है। जब कि सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति उपशम सम्यक्त्वके कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह आवलि कालके शेष रहनेपर मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्क में से किसी एक प्रकृतिके उदय उदीरणा होनेपर होती है । वहाँ दर्शनमोहनीयकी किसी भी प्रकृतिका उदय न होनेसे दर्शनमोहनीयकी अपेक्षा पारिणामिक भाव होता है। इसी प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालके भीतर भी ये सब विशेषताएँ जाननी चाहिए । मात्र ऐसा जीव अपने कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छह आवलि काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिका उदय होनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है । किन्तु उपशम सम्यक्त्वका उक्त काल निकल जानेपर वह सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उपशम सम्यक्त्वका काल समाप्त होनेपर वह या तो मिथ्यात्वके उदय उदीरणा के होनेसे मिध्यादृष्टि हो जाता है या सम्यग्मिथ्यात्वका उदय- उदीरणा होनेसे सम्यग्मिध्यादृष्टि हो जाता है या सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय उदीरणा होनेसे . वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है । यहाँ गाथा में 'खीणम्मि' पद आया है। उससे यह अभिप्राय भी फलित होता है कि दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर भी यह जीव सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होनेके पूर्व ही यह जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर लेता है, और ऐसे जीवके पुनः अनन्तानुबन्धीकी सत्ताका प्राप्त होना सम्भव नहीं है । दर्शनमोहके उपशमनका प्रस्थापक जीव साकार उपयोगमें विद्यमान होता है । किन्तु उसका निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है । तीनों योगों मेंसे किसी एक योग में विद्यमान तथा तेजोलेश्याके जघन्य अंशको प्राप्त वह जीव दर्शनमोहका उपशामक होता है ।। ४-९८ ।। $ १९५. इस चौथे गाथा सूत्र द्वारा दर्शनमोहके उपशामकके उपयोग, योग और लेश्या परिणामगत विशेषका कथन जानना चाहिए। यथा - 'सागारे पट्टवगो' ऐसा कहने पर दर्शनमोहकी उपशमविधिका आरम्भ करनेवाला जीव अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रस्थापक कहलाता है । परन्तु वह जीव उस अवस्थामें ज्ञानोपयोग में ही उपयुक्त होता है, क्योंकि उस अवस्थामें अवीचारस्वरूप दर्शनोपयोगकी प्रवृत्तिका विरोध

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