Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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गाथा ७४ ]
पंचमगाहासुत्तस्स अत्थपरूवणा
१५७
मन्दायमानस्वभावो न चिरतरकालमवतिष्ठते । पूर्वस्मादनन्तगुणहीनसामर्थ्यः सन् कियन्मात्रादपि कालादल्पेनापि यत्नेनापैतीति ।
$ १४. मन्दतरस्तु लोभस्य तुरीयोsवस्थाविशेषो हारिद्रवस्त्रसमक इति व्यपदिश्यते । हरिद्रया रक्तं वस्त्रं हारिद्रं तेन समो हारिद्रवस्त्रसमकः । यथैव हरिद्राद्रवरंजितस्य वस्त्रस्य स वर्णरागो न चिरं तत्रावतिष्ठते, वातातपादिभिरभिहन्यमानमात्र एवोड्डीयते । एवमयं लोभप्रकारो मन्दतमानुभागपरिणतत्वान्न चिरमात्मन्यवतिष्ठते, क्षणमात्रादेव विश्लेषमियर्तीति । तदेवं प्रकर्षाप्रकर्षवत्तीव्र-मन्दावस्थाभेदभिन्नत्वाल्लोभोऽपि चतुर्विधो भणित इति गाथार्थः ।
(२१) एदेसिं ट्ठाणाणं चदुसु कसाएसु सोलसह पि ।
कं केण होइ अहियं द्विदि-अणुभागे पदे सग्गे ॥५-७४ ॥
$ १५. समनंतरनिर्दिष्टानामेषां स्थानानां षोडशभेदभिन्नानां स्थित्यनुभवप्रदेशैरल्पबहुत्वनिर्धारणार्थमिदं सूत्रमारभ्यते । तद्यथा - 'एदेसिं ट्ठाणाणं' एतेषामनन्तरनिर्दिष्टानां स्थानानामित्यर्थः । ' चदुसु कसाएसु' चतुर्षु कषायेषु प्रत्येकं चतुर्भेदभिन्नत्वात् षोडशसंख्यावच्छिन्नानामित्यर्थः । 'कं केण होइ अहियं' कं ट्ठाणं केण ट्ठाणेण सह सणियासिजमाणं द्विदि-अणुभाग- पदेसेहिं हीणमहियं वा होदित्ति पुच्छाहै, वह चिरकाल तक नहीं ठहरता है, उसीके समान उत्तरोत्तर मन्दस्वभाववाला यह लोभका भेद भी चिरकाल तक नहीं ठहरता है । पिछले लोभसे अनन्तगुणी हीन सामर्थ्यवाला होता हुआ कुछ ही कालमें थोड़ेसे भी यत्नसे दूर हो जाता है ।
$ १४. तथा लोभकी मन्दतर चौथी अवस्थाविशेष है । वह हरिद्रावस्त्र के समान कहा गया है । हलिदीसे रंगा गया वस्त्र हारिद्र कहलाता है । उसके समान हारिद्रवस्त्रसदृश कहलाता है । जैसे हलिदीके द्रवसे रंगे गये वस्त्रका वह वर्णरंग चिरकाल तक नहीं ठहरता, वायु और आप आदिके निमित्तसे ही उड़ जाता है । इसी प्रकार यह लोभका भेद मन्दतम अनुभागसे परिणत होनेके कारण चिरकाल तक आत्मामें नहीं ठहरता, क्षणमात्रमें ही दूर हो जाता है । इस प्रकार प्रकर्ष और अप्रकर्षवाले तीव्र और मन्द अवस्थाके भेदसे विभक्त होनेके कारण लोभ भी चार प्रकारका कहा गया है यह इस गाथाका अर्थ है ।
* चारों कषायोंके इन सोलह स्थानों में स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा कौन स्थान किस स्थानसे अधिक होता है और कौन स्थान हीन होता है ।।५-७४॥
$ १५. समनन्तर कहे गये सोलह स्थानो में विभक्त इन स्थानोंके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए इस सूत्रका आरम्भ करते हैं यथा - 'एदेसिं ट्ठाणाणं' इन समनन्तर पूर्व कहे हुए स्थानोंके यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'चदुसु कसासु' चार कषायोंमेंसे प्रत्येकके चार भेदों में विभक्त होनेके कारण सोलह संख्यारूप यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'कं केण होइ अहियं' कौन स्थान किस स्थानके साथ सन्निकर्षको प्राप्त होता हुआ 'स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा हीन होता है या अधिक होता