Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 317
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ सम्मत्ताणियोगद्दारं १० $ १३७. संपहि अपुव्वकरणपढमसमए जुगवमाढत्ताणं ठिदि-अणुभागखंडय - डिदि - बंधाणं परिसमत्ती किमक्कमेण होइ, आहो कमेणे त्ति आसंकाए णिण्णयविहाणट्ठमिदमाह - २६६ * तम्हि ट्ठिदिखंडयद्धा ठिदिबंधगद्धा च तुल्ला । $ १३८. अपुव्वकरणे पढमट्टि दिखंडयद्धा पढमट्ठिदिबंधगद्धा च अंतोमुहुत्तमेत्ती होण अण्णोणेण तुल्ला भवदि । एवं विदियादिट्ठिदिखंडय-ट्ठिदिबंधद्वाणमण्णोष्णं समाणत्तं वत्तव्वं । वरि पढमट्ठिदिखंडयतब्बंधगद्धाहिंतो विदियादीणं जहाकमं विसेसहीणत्तमवगंतव्वं । सुत्तेणाणुवइङ्कं कथमेदमवगम्मदि त्ति णासंकणिजं, उवरिमअप्पाबहुअसुत्तवलेण तणिणयादो । तदो हिदिखंडय - द्विदिबंधाणं पारंभो पज्जवसाणं च जुगवं होदि ति सुत्तस्स भावत्थो । संपहि ठिदिखंडयद्धाए संखेज्जदिभागमेती चेत्र अणुभागखंडय - त्रिभाग में उदय समयसे लेकर निक्षेप होता है तथा एक समयकम उदद्यावलिका दो त्रिभाग अतिस्थापनारूप रहता है । इससे उपरिम द्वितीय स्थितिके कर्मपुंजका अपकर्षण होनेपर निक्षेपका प्रमाण वही रहता है, मात्र अतिस्थापना में एक समयकी वृद्धि हो जाती है । पुनः इससे उपरिम तृतीय स्थितिके कर्मपुंजका अपकर्षण होनेपर निक्षेप तो वही रहता है, मात्र अतिस्थापना में एक समयकी और वृद्धि हो जाती है । इसप्रकार उत्तरोत्तर अतिस्थापनाके एक आवलिप्रमाण होनेतक उसमें वृद्धि होती जाती है, निक्षेपका प्रमाण वही रहता है । पुनः इससे ऊपर सर्वत्र अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण ही रहती है, मात्र निक्षेपमें प्रति समय वृद्धि होती जाती है। यहाँ जघन्य निक्षेपका प्रमाण एक समय कम एक आवलिका एक समय अधिक त्रिभागप्रमाण है और उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण एक समय अधिक दो आवलि कम यहाँ गुणश्रेणि रचना कालके प्रत्येक समय में प्राप्त कर्म स्थितिप्रमाण है । $ १३७. अब अपूर्वकरणके प्रथम समय में काण्डक और स्थितिबन्धकी परिसमाप्ति अक्रमसे ऐसी आशंका होनेपर निर्णयका विधान करनेके लिये युगपत् प्राप्त हुए स्थितिकाण्डक, अनुभागअर्थात् युगपत् होती है या क्रमसे होती है। इस सूत्र को कहते हैं * वहाँ स्थितिकाण्डकका काल और स्थितिबन्धका काल तुल्य है । $ १३८. अपूर्वकरण में प्रथम स्थितिकाण्डकका उत्कीरण काल और प्रथम स्थितिबन्धका काल अन्तर्मुहूर्त होकर परस्पर तुल्य होता है । इसीप्रकार द्वितीयादि स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्धका काल परस्पर समान है ऐसा कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालसे और प्रथम स्थितिबन्धके कालसे द्वितीयादिको यथाक्रम विशेष हीन विशेष हीन जानना चाहिए । शंका – सूत्र में इस विशेषताका उपदेश नहीं दिया है, फिर यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्व के प्रतिपादक सूत्रोंके बलसे इस विशेषताका निर्णय होता है । इसलिए स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्धका प्रारम्भ और समाप्ति एकसाथ होती है यह इस सूत्र का भावार्थ है । अब स्थितिकाण्डकघातके कालके संख्यातवें भागप्रमाण ही अनु

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